सेकुलर ‘जमात’ का काफिरोफोबिया

कथित ‘सेकुलर’ लोगों ने सबसे बड़ा ‘कम्युनल’ काम ये किया कि जमात की गलती देखने की बजाय इस गलती की ओर इशारा करने वालों को ‘इस्लामाफोब’ ठहरा दिया। अब जब उन्होंने यह शब्द गढ़ ही दिया है तो देखना होगा कि यह सोच उन्होंने पाई कहां से। कहीं ये उनका ‘काफिरोफोबिया’ तो नहीं!


वह बुढ़िया पार्टी सोई हुई थी। उसके भाग्यविधाता भी सोए हुए थे। लेकिन उनके सपने में अक्सर अरब की क्रांति आती। इसलिए जब उनींदी अवस्था में बीच-बीच में आंखें खुलतीं तो सपने की उसी क्रांति का अक्स जैसे सामने आ खड़ा होता। शाहीन बाग के क्षितिज पर वैसा ही कुछ दिखा था। लेकिन जब आंखें खुली तो वैसा कुछ नहीं था। ओह, तो सब सपना था! नतीजा, फिर चादर तान ली। अब फिर वह अधखुली आंखों में क्रांति के उसी ‘मनमोहक’ नजारे के साथ जगी है और सियासत की जमीन पर पैर जमाकर खड़ी होने की कोशिश कर रही है।

एक तरफ जहां चाइनीज वायरस के कारण दुनिया की धुरी जैसे हिल गई हो, वहीं कुछ लोगों के लिए यह सत्ता-संसाधन हासिल करने का खेल बन गया है। अमेरिका में डेमोक्रेट की छटपटाहट या भारत में कांग्रेस की बेचैनी को इसी संदर्भ में समझना चाहिए। दोनों जगह राजनीतिक आकांक्षाएं मानवता की पीड़ा से अलग हैं। यह बताता है कि स्थापित लोकतंत्र में ऐसे भी दल हैं जो जमीन से कटे हुए पर अंधहितों से बंधे हुए हैं।

भारत में विविधता को विभाजक रेखाओं की तरह पोसने वाली मानसिकता में इस समय सबसे ज्यादा उभार दिखता है। खासकर, 13 अप्रैल से कांग्रेस के नए तेवर में। कांग्रेस लंबे समय से सो रही थी। वह 13 अप्रैल को जागती है। जागते ही जो अंगड़ाई लेती है, उससे दिख जाता है कि वह तो लोगों को बांटने, उनका गुस्सा भड़काने और व्यवस्था के प्रति इस तरह पनपे उनके आक्रोश को अपने पक्ष में भुनाने की तरकीबों में जुटी है।
 रोज कांग्रेस के अग्रणी नेता सामने आ रहे हैं। लेकिन उनके पास समस्या का समाधान नहीं है। सोनिया आईं तो उन्होंने कहा कि मीडिया के विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। 
राहुल आए तो उन्होंने कहा कि ये अब आपके खाने के चावल से सैनेटाइजर बनाएंगे। ये धूर्तता वाली, लोगों को उकसाने वाली बात तो है ही, अपूर्ण भी है। इसके बाद एक ट्विटर ट्रेंड चला #WHO_With_Rahul
इसका संज्ञान लेना चाहिए। अगर वे सोशल मीडिया पर इसे चलाते हैं तो यह भी देखना चाहिए कि इस विपत्ति में डब्ल्यूएचओ और राहुल, दोनों ही धूर्तता कर रहे थे, लोगों को गुमराह कर रहे थे। 
14 जनवरी को डब्ल्यूएचओ का जो ट्वीट था, वह लोगों को गुमराह करने वाला था कि यह वायरस इंसानों से इंसानों में नहीं फैलता। 
राहुल गांधी ने जब कहा कि तुम्हारे खाने के चावल से ये लोग अमीरों के हाथ धोने के लिए सैनेटाइजर बनाएंगे, तो यह भी धूर्ततापूर्ण था क्योंकि भारत में खाद्यान से गोदाम भरे हुए हैं। साल-डेढ़ साल का अनाज हमारे पास है। और फिर बचत होती क्यों है? गाढ़े समय में काम आने के लिए। क्या यह समय संकट का नहीं? क्या सैनेटाइजर पर सिर्फ अमीरों का हक है? क्या गरीबों की जान बचाने के लिए उन्हें भी सैनेटाइजर नहीं मिलना चाहिए? अब गरीबों की थाली के चावल से इथेनॉल तो फैक्टरी में आलू बनाने वाले राहुल ही तैयार कर सकते हैं।
डब्ल्यूएचओ का दिल चीन के लिए कैसे धड़कता है, वह कैसे चीन के लिए पेशबंदी करता है, यह दुनिया ने देख लिया है। हमने भी डोकलाम के समय चीन के लिए राहुल की धड़कनों को बढ़ते देखा है। जब डोकलाम में दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने थीं, राहुल छिपते-छिपाते चीन के राजदूत से मिलते हैं। क्या खिचड़ी पकती है, वही जानें लेकिन जब बात खुलती है तो पहले तो कांग्रेस इसे खारिज कर देती है, फेक न्यूज बताती है। लेकिन जब झूठ पकड़ा जाता है तो वही कांग्रेस यह कहते हुए लीपापोती में जुट जाती है कि इसमें गलत क्या है।

अब जरा किट की बात। चीन से किट मंगानी है तो इसके लिए ज्यादा टेस्ट करने का दबाव बनाने वाली कांग्रेस ही थी और कांग्रेसशासित राज्यों में ही सबसे पहले उछलकर ये किट मंगाई गई। सौदा आपको हमेशा लुभाता रहा है, खासतौर पर अगर वह विदेशी हो। मगर उसके चक्कर में आप लोगों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं, क्योंकि ये किट तो घटिया हैं। डब्ल्यूएचओ और राहुल, दोनों ही लोगों को मूर्ख बना रहे हैं। दोनों ही चीन की चाटुकारिता करते दिखाई दे रहे हैं। दोनों ही लोगों की जान को जोखिम में डालने का काम कर रहे हैं।

अब इनके ख्वाबों की उसी रूमानी क्रांति को हकीकत में बदलने वाले एक और आयाम की बात। चाइनीज वायरस को फैलने में तबलीगी जमात ने मदद की है, ये कोई अबूझ पहेली नहीं है। ये बात पूरी दुनिया जानती है। और भारत में वायरस का संक्रमण बहुत हद तक काबू में हो जाता अगर जमात के मरकज से ये नहीं फैलते। मगर कथित ‘सेकुलर’ लोगों ने सबसे बड़ा ‘कम्युनल’ काम ये किया कि जमात की गलती देखने की बजाय इस गलती की ओर इशारा करने वालों को ‘इस्लामाफोब’ ठहरा दिया। अब जब उन्होंने यह शब्द गढ़ ही दिया है तो देखना होगा कि यह सोच उन्होंने पाई कहां से। कहीं ये उनका ‘काफिरोफोबिया’ तो नहीं! बाकी सबको ‘काफिर’ मानते हैं, उनसे नफरत करते हैं और उनकी अच्छी बात भी बुरी लगती है। समझने वाली बात यह है कि जो जमात की हिमायत कर रहे हैं, जो इस्लामोफोबिया के नाम से समाज में जहर घोल रहे हैं, वही इस्लाम के असली दुश्मन हैं क्योंकि वे चाहते है कि इस्लाम कट्टरपंथी लोगों के हाथों में ही बंधक बना रहे। वे मानते हैं कि कोरोना पर पूरे मुस्लिम समुदाय को भ्रमित करने वाला नेतृत्व ही दरअसल असली इस्लामी नेतृत्व है, क्योंकि यह उनके उसी हसीन ख्वाब को हकीकत में बदलने की उम्मीद जगाता है।
दरअसल, सत्ता विरोधी राजनीतिक दल इसी झुंझलाहट, आक्रोश और आर्थिक नुकसान को अपने हित में भुनाना चाहते हैं। 
यही कारण है कि जब डॉक्टरों, नर्सों पर हमला होता है, राजस्थान के टोंक में पुलिस पर हमला होता है तो राज्य की कांग्रेस सरकार इसका संज्ञान नहीं लेती है। 
वास्तव में यह आक्रोश कांग्रेस का पाला-पोसा हुआ है। इसी तरह महामारी के दौर में महाराष्ट्र में, जहां कांग्रेस समर्थित सरकार है, बांद्रा-कुर्ला रेलवे स्टेशन पर भीड़ जमा होना या दिल्ली की घटना, जिसमें लोगों को डरा-धमका कर रातोंरात खतरनाक तरीके से आनंद विहार बस अड्डे पर इकट्ठा किया गया। ये सारी घटनाएं बताती हैं कि जिस समय आप संकट पर काबू पाने में जुटे हुए हैं, वहीं देश का नागरिक होने के बावजूद कुछ लोग इस संकट को बढ़ा देना चाहते हैं, क्योंकि उनके लिए जब तक मानवता का यह संकट दूसरे दल के राजनीतिक संकट में परिवर्तित नहीं होगा, तब तक उनकी दाल नहीं गलेगी।
बात यहीं नहीं थमती। आगे का खेल इससे भी खतरनाक है। आक्रोश को रोकने के लिए यदि प्रशासनिक सख्ती होती है तो इसे दोगुने वेग से भड़काया जा सकता है। लोग किन परिस्थितियों में हिंसाचार पर उतर सकते हैं, राजनीतिक दल बखूबी जानते हैं। कोरोना त्रासदी से ठीक पहले दिल्ली दंगों में हम सबने यह देखा है। लाशों पर राजनीति करने वाले, आक्रोश पर राजनीति करने वाले आज फिर ताक में हैं। उन्हें भूख, गरीबी और बेकारी को स्थायी झुंझलाहट में बदलना और उसे अपनी राजनीति का औजार बनाना आता है। यह सब काम किस तरह से करना है, वे बहुत अच्छे से जानते हैं और दशकों से यह काम करते भी आए हैं। इस बार भी उनकी चाल कुछ ऐसी ही है। प्रशासनिक अमले पर हमला, टोंक जैसी घटना में पुलिसकर्मियों को निशाना बनाना, डॉक्टरों से दुर्व्यवहार और क्वारंटाइन केंद्र की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करना, ये सब दरअसल चालें हैं। 
ये चालें हैं आक्रोश को अराजकता में बदलने और उस आक्रोश को सीधे-सीधे लोगों की परेशानी से जोड़ने की। यानी लोगों को भड़काना, उन्हें राज्य या देश के खिलाफ खड़ा करना, हिंसाचार पर उतारू करना और फिर बताना कि यह मजलूम और पीड़ितों की आवाज है, जिसे दबाया जा रहा है। इस राजनीति की तुरंत काट करना जरूरी है, वरना भारत एक संकट से गुजरते हुए दूसरे बड़े संकट में धंस सकता है। इसलिए जरूरी है कि क्रांति के सपनों को हकीकत में बदलने का कुचक्र करते लोगों की खतरनाक मंशा को समझा जाए, उनके उकसाने वाले बयानों पर सख्ती हो, झूठ परोसते मीडिया पर तुरंत रोक लगाई जाए। यह रोक लोकतंत्र पर नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना पर चोट करने वालों के लिए है।


सूचनातंत्र में संक्रमण

अगर इसे वाकई लोकतंत्र के भार को उठाना है तो उसे स्वस्थ तो रहना ही पड़ेगा और अगर संक्रमण से बचाव के उपाय स्व-प्रेरित हों तो इलाज की कष्टकारी प्रक्रिया की जरूरत नहीं पड़ेगी।
 
 
आज वैश्विक महामारी का संक्रमण तो है ही, सूचनाओं को लेकर भी एक तरह का संक्रमण है। कई बार इसमें शरारत भी दिखती है। इसलिए मीडिया से जुड़े लोगों के लिए जरूरी है कि वे रफ्तार के चक्कर में सावधानी न छोड़ दें। 
कहते भी हैं कि दुर्घटना से देर भली और जब बात सूचना की हो तो सावधानी कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए लोकतंत्र के चौथे खंभे को यह देखना होगा कि उसकी बुनियाद में तो कोई संक्रमण नहीं घुस गया है, अगर है तो उसे हटाना होगा। अगर इसे वाकई लोकतंत्र के भार को उठाना है तो उसे स्वस्थ तो रहना ही पड़ेगा और अगर संक्रमण से बचाव के उपाय स्व-प्रेरित हों तो इलाज की कष्टकारी प्रक्रिया की जरूरत नहीं पड़ेगी।

मीडिया की पहुंच आज ‘ड्राइंग रूम’ से लेकर लोगों के दिलो-दिमाग तक हो गई है। स्पष्ट है कि मीडिया बदला है, लेकिन यह एक दिन में नहीं हुआ। धीरे-धीरे होता गया। पहले अखबार वाला आवाज लगाता था- आज की ताजा खबर...। जिसके पास ताजा खबर होती थी, उसे दिलचस्प तरीके से छापता-बताता था और उसका अखबार हाथों-हाथ बिक जाता था। बाद में ताजा खबर का दारोमदार प्रिंट से खिसककर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाथ चला गया। ऐसा गति और तकनीक के कारण ताजा खबर की ‘शेल्फ लाइफ’ कम हो जाने से हुआ। ऐसे में प्रिंट मीडिया की विश्लेषणात्मक भूमिका की अपेक्षा की जा रही है।

जब गति एक बार बढ़ती है तो बढ़ती ही जाती है। तकनीक आधारित रफ्तार का यही नियम है। प्रिंट से आगे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चला गया तो इलेक्ट्रॉनिक से आगे सोशल मीडिया हो गया। 

एक घटना को याद करें। जिस समय ओसामा बिन लादेन को अमेरिका की फौज ने मारा था, उस समय ब्लैकबेरी फोन चलाने वाले एक पाकिस्तानी ने आसमान में गड़गड़ाहट सुनने की जानकारी अपने लोगों से साझा की, जैसे ऐबटाबाद के आसमान में कोई विमान या हेलीकॉप्टर चुपके से अकस्मात् आया हो। अगले दिन वह बात सही साबित हुई यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की गति के आगे सोशल मीडिया की ताकत स्थापित हुई। उसके बाद से तो इसकी झड़ी लग गई। 

आज स्थिति यह है कि ‘न्यूज रूम’ में समाचार सूची ट्वीटर, हैशटैग के आधार पर तैयार होती है। पहले जो खबर पत्रकार लाता था, आज वह खबर कहीं से भी आ जाती है। पहले खबर लाने की चुनौती होती थी, आज चुनौती यह परखने की है कि खबर सत्य है या नहीं और उस खबर में सभी आयाम जोड़े गए हैं या नहीं।
जैसे-जैसे सूचना की रफ्तार बढ़ी है, वैसे-वैसे झूठ की रफ्तार भी बढ़ी है। 
हम देखते हैं कि बहुत सारी खबरें व्हाट्सएप पर आती हैं, फेसबुक पर आती हैं। अगर सोशल मीडिया तक ही झूठ सीमित रहता तो बात और थी मगर मुख्यधारा मीडिया में भी ऐसा चलन हो चला है। वहां भी झूठी खबरें परोसी जा रही हैं। ऐसे में शायद वक्त आ गया है कि जिस तरह ताजा खबर अथवा विशेष खबर का श्रेय मीडिया जिस तरह ताल ठोक कर लेता है, झूठी खबरों की छंटाई करते हुए भी मीडिया संस्थान या समूह का नाम लिया जाना चाहिए। आखिर, राजनीतिक दलों के नाम लेकर हम चर्चा करते हैं। विवादित बयानों पर हम चर्चा करते हैं। मगर मीडिया की झूठी खबरों में मीडिया ब्रांड का नाम नहीं लेते। संपादकों और रिपोर्टरों के नाम लेकर अगर हमने यह चर्चा शुरू नहीं की तो मीडिया में लगातार बढ़ती झूठ की मिलावट पर लगाम नहीं लग सकेगी। ऐसा नहीं है कि मीडिया, मीडिया को आईना नहीं दिखा सकता। 

अगर विशिष्ट उदाहरण के आधार पर बात करें तो शायद बेहतर तरीके से समझ आए। कोरोना काल की इन खबरों का जिक्र जरूरी है।
यहां बीबीसी का भी उल्लेख करना आवश्यक है। बीबीसी की खबरों का हमें खासतौर से विश्लेषण करना चाहिए।
 बीबीसी एक समय पर इस देश में सच्ची, पक्की, पुख्ता खबर का प्रतीक कहा जाता था। कहा जाता था कि-यह हमने बीबीसी पर सुना है! यानी बहुत भरोसेमंद है। मगर याद कीजिए वो दौर और था जब अमीन सयानी बिनाका संगीतमाला के साथ आते थे तो लोग संगीतमाला भी सुनते और बीबीसी भी सुनते थे। तब सुरुचिपूर्ण और सजग होने का प्रतीक था रेडियो और उसकी खबरें।
वह दौर कुछ और था। रेडियो सिलोन जब चलता, तब की बात से अब तक बहुत बदलाव आ चुका है। बीबीसी को बार-बार दो तरह की खबरों को प्रसारित करते हुए देखा जा रहा है। विदेश से जुड़ी खबर होगी तो उसका नजरिया कुछ और होता है। भारत से जुड़ी कोई खबर है तो उसका नजरिया कुछ और होगा। मगर एक मुलम्मा रहेगा तटस्थता का। इसको समझना है तो एक उदाहरण देखिए- भारत में बीबीसी ने कभी कश्मीर के आतंकवादियों को आतंकवादी नहीं कहा, बल्कि एक अलग विचारधारा के लोग लिखा। अलगाववादी लिखा। मगर यही बीबीसी मानवाधिकार की आड़ लेकर आतंकियों को आतंकी नहीं लिखता।
वहीं ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रही आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के लिए बीबीसी धड़ल्ले से ‘टेरेरिस्ट’ शब्द का इस्तेमाल करता है। हमें इस सवाल को बीबीसी के सामने नहीं उठाना चाहिए क्या? 
बीबीसी को एक और उदाहरण से समझिए- अमेरिका के अनुरोध के बाद हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन दवा को निर्यात करने का भारत ने फैसला किया तो बीबीसी ने कहा कि भारत अपने यहां के गरीबों की अनदेखी कर रहा है। एक कार्टून छापा गया कि अगर सभी के लिए मास्क की अनिवार्यता कर दी गई तो क्या होगा- यह होगा कि अधनंगे लोग अपने कपड़े फाड़कर मास्क बनाएंगे। मगर अगले ही दिन जिस देश को आप गरीब और भीख मांगने वाला बता रहे थे, उसी देश के सामने ब्रिटेन हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के लिए हाथ फैलाए खड़ा था तो बीबीसी के पास कोई जवाब नहीं था। बीबीसी से इसका भी जवाब पूछा जाना चाहिए। कश्मीर और लद्दाख भारत का अखंड हिस्सा हैं, लेकिन बीबीसी इन्हें बार-बार ‘विवादित क्षेत्र’ या ‘भारत प्रशासनिक इलाका’ लिखता रहा है। इस प्रकार की शरारत कब तक चलेगी?


अब टाइम्स आफ इंडिया की बात करते हैं। इस अखबार ने छापा कि मुंबई में कोरोना का इलाज कर रहे डॉक्टरों के पास हाईड्रोक्सीक्लोरोफिन नहीं है जो कि पूरी तरह झूठी खबर थी। जब यह खबर पूरी तरह फैल गई तो टाइम्स आफ इंडिया ने इस खबर को अपने पोर्टल से हटा लिया। यानी पहले झूठ फैलाना और फिर अपनी करतूत को मिटाना। यह एक षड्यंत्र है जिसको पकड़ना चाहिए। 

अब ‘हिन्दुस्तान’ अखबार की बात। हिन्दुस्तान अखबार ने छापा कि केंद्रीय कर्मचारियों के भत्तों में कटौती होने वाली है, जबकि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं था। राहुल गांधी ने इस विषय पर बयान दे दिया, जिसका सार था कि केंद्र सरकार के पास कर्मचारियों के भुगतान के लिए पैसे तक नहीं हैं! मगर इस सबके उलट सचाई कुछ और है! सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता और यात्रा भत्ता मिलता है और कटौती केवल यात्रा भत्ते में की गई थी। वैसे भी, कोरोना काल में कोई किसी प्रकार की यात्रा नहीं कर रहा था तो भत्ता किस बात का। महंगाई भत्ते में किसी प्रकार की कटौती नहीं थी। हां, इसमें होने वाली बढ़ोतरी में कटौती की बात जरूर थी। लेकिन यह झूठ जमकर फैलाया गया।
सत्य की नाव में झूठ के सौदागर हैं सवार
मीडिया को सत्य का प्रतीक माना जाता है। सत्य की नाव का खेवनहार। आज जो दिखाई देता है, उससे तो ऐसा ही लगता है कि सत्य की इस नाव में झूठ के सौदागर सवार हो गए हैं।

नागरिकता संशोधन कानून को ही लें। इसमें किन्हीं लोगों को नागरिकता देने की बात थी और किसी की नागरिकता लेने का तो प्रावधान ही नहीं था। लेकिन सूचना पर हावी अफवाह तंत्र ने इसे नागरिकता छीनने का साधन बना दिया।

 शाहीनबाग पर भी गौर करें। अफवाह तंत्र ने नागरिकता संशोधन कानून को भारत के मुसलमानों के खिलाफ षड्यंत्र करार देते हुए लोगों को शाहीन बाग में सड़क पर बैठने को प्रेरित किया और फिर उस जमावड़े में भारत-विरोधी ताकतों को मंच दे दिया। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाने वाले लोग असम को काटने की बात कर रहे थे।

एक और घटना पर गौर करें, दिल्ली का दुर्भाग्यपूर्ण दंगा। दिल्ली दंगे में एक समुदाय की करतूतों को ढकने का काम किया गया। दिल्ली दंगों में एक पार्षद के घर से तेजाब के पाउच, गुलेलें, पत्थरों के अंबार और बंदूकें मिलीं। पार्षद पकड़ा गया। इस सबके बावजूद जिस दंगाई पाले में ये सब लोग जमा थे उसे ही पीड़ित और प्रताड़ित लिखने का काम इसी अफवाह तंत्र ने किया।

इसी श्रृंखला में कोराना काल में अफवाह तंत्र के कारनामों से जुड़ी चौथी बड़ी खबर है दिल्ली के आनंद विहार पर मजदूरों को जमा कर देना। मजदूरों को रात में फोन कर डराया गया। यहां तक कहा गया कि दिल्ली में गृह-युद्ध शुरू होने वाला है और वे लोग इसमें भूखे मारे जाएंगे। इस अफवाह के कारण दो लाख के करीब लोग इकट्ठे हो गए।

ये घटनाएं क्या बताती हैं? क्या खबर पहुंचाने की हड़बड़ी में हुई कोई चूक है? ऐसा बिल्कुल नहीं। 
यह सोची-समझी साजिश के तहत फैलाई गई अफवाह है जिसका उद्देश्य भारत के भीतर युद्ध का ऐसा मैदान बना देना है जिसमें सारी व्यवस्था ध्वस्त हो जाए। 
लोकतंत्र के इस चौथे खंभे के पीछे छिपे भेड़ियों को पहचानकर उनके खतरनाक इरादों पर लगाम लगाना जरूरी है।
एक और बात पर ध्यान देना चाहिए। जिस-जिसके खतरे में होने की मुनादी की जाती है, उसकी थोड़ी सी खुदाई करें तो पाएंगे कि कम से कम वह तबका-वह विचार तो खतरे में नहीं ही होता जिसके खतरे में होने की बात की जाती है। ऐसे अधिसंख्य उद्धरणों में खतरे में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक सहबद्धता होती है। 
अभी हाल ही में ऐसे ही तत्वों द्वारा द्वारा मीडिया के खतरे में पड़ने की मुनादी की गई थी। 
एक एजेंडा वेबसाइट है-वायर। इसके संस्थापक सिद्धार्थ वरदराजन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो नहीं बोला उसे भी अपनी तरफ से गढ़कर ट्वीट कर दिया। उत्तर प्रदेश में झूठ फैलाने के आरोप में एफआईआर हो गई। हैरानी की बात है कि सत्य और पारदर्शिता की ताल ठोकने का दावा करने वाले तबके में जब एक पत्रकार झूठ बोलते पकड़ा जाता है तो मीडिया ‘खतरे’ में पड़ जाता है! ‘एडिटर्स गिल्ड’ के पेट में भी दर्द हो जाता है।
मीडिया की असली बात शायद यह है कि जिन्हें हमने हीरो बनाकर रखा है, उन्होंने ही इसकी साख को पंगु बना दिया। समय की जरूरत है कि चाहे कोई घटना हो या खबर, उसका आधार तथ्य हो, विचार नहीं। इस देश को व्यवस्था देने वालों का तो भरोसा ‘सत्यमेव जयते’ पर था, सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मीडिया को सत्य की सत्ता पर और इसे जीवित रखने पर भरोसा है या नहीं। क्योंकि अगर बदलाव स्व-प्रेरित होगा तो सहज होगा, अगर बाह्य-प्रेरित होगा तो कष्टकर होगा।