तनिक कल्पना करें आज भी गांव के उस व्यक्ति की जिसके पास अपना भोजन है अर्थात अपने खेत में पैदा किया गया अन्न है , जिसके पास अपने कुए का या नल का पानी है , जिसके पास अपनी गाय है , दूध , दही , छाछ , घी सब उसके पास अपने घर के हैं । जिसके पास अपने घर में पैदा की हुई दाल है , सब्जी है और पूरे एक वर्ष के लिए दाल आदि का पूरा प्रबंध है । जिसके पास अपनी साफ हवा है, बिजली नहीं आए तो जिसके पास अपना दीया भी है और जिसके पास सोने के लिए अपना आंगन या अपनी छत है , उसकी स्वतंत्रता और हमारी स्वतंत्रता में कितना अंतर हो गया है ?
प्राचीन भारत में वास्तव में हमारी अर्थव्यवस्था व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखने वाली होती थी । इसलिए गांव को भी पूर्ण स्वायत्तशासी संस्था के रूप में विकसित किए जाने की व्यवस्था भारतवर्ष में प्राचीन काल से रही है । उसी की टूटी – फूटी व्यवस्था हम गांवों में आज भी देख रहे हैं । सरकारी योजनाओं से पूर्णतया उपेक्षित रहने वाले गांव आज भी कोरोना संकट का बड़ी सफलता से सामना कर रहे हैं ।
अंग्रेजी शासन जब भारत में आया तो उन लोगों ने भारत के गांव की व्यक्तिगत आजादी को लूटने का पूरा तंत्र खड़ा किया । जिसमें कलेक्टर को राजस्व कलेक्ट करने का काम दिया गया और एक सरकारी व्यक्ति के रूप में अधिकारी बनाकर उसे ग्रामों कर रक्त चूसने के लिए बैठा दिया गया । स्वतंत्र भारत में उसे आज भी हम इसी खून चूसने वाले कलेक्टर के नाम से ही जानते हैं । जिला कलेक्टर राजस्व वसूल कर अपने ऊपर के बैठे अधिकारी कमीशन खोर कमिश्नर को देता था । इस कमिश्नर को आज भी हम कमिश्नर के नाम से ही जानते हैं । यह उसमें से अपना हिस्सा अर्थात कमीशन रखकर ऊपर सरकार को पहुंचा देता था । इस प्रकार पूरा तंत्र नीचे से लेकर ऊपर तक गांव को उजाड़ने वाला बन गया । उस समय गांव के आम काश्तकार को लूटने , धमकाने और उसकी भूमि से उसे बेदखल करने के अधिकार पटवारी को दिए गए । पुलिस के एक छोटे से सिपाही को भी यह अधिकार दिए गए कि वह जैसे चाहे वैसे मारपीट कर किसानों को उत्पीड़ित कर सकता है । यही कारण है कि कलेक्टर की ओर से भेजे जाने वाले इन दोनों कर्मचारियों अर्थात पुलिस के सिपाही और पटवारी से हमारे गांव के लोग आतंकित हो जाते थे , जिनका भय अब तक भी बना रहा है।
किसान और जनसाधारण का खून चूसने वाली इस सरकारी व्यवस्था के उपरांत भी गांव के लोगों ने अपने आपको भारत के प्राचीन अर्थव्यवस्था वाले तंत्र से जोड़े रखा । लोगों में आज भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे किसी भी आपातकाल के लिए घर में घी घर रखते हैं , दाल , अन्न , सरसों का तेल आदि का सामान भी पूरे एक वर्ष के लिए रखते हैं ।
यह वह वर्ग है जो आज भी भारत सरकार से बिना कुछ लिए आराम से अपना जीवन यापन कर रहा है , एक वह वर्ग है जो सरकारी नौकर के रूप में सरकार का खून चूसता रहता है , जितना लूटा जा सकता है लूटता है , इसके बाद भी भूखा मरता है और माँगता रहता है ।
इन वेतनभोगियों से बड़े डकैत वह बैठे हैं जो सरकारी योजनाओं को ऊपर से ऊपर ही लपक लेते हैं और उसमें से करोड़ों का कमीशन लेकर उसे ऊपर बैठे बैठे ही डकार जाते हैं । इसके उपरांत भी अनेकों बीमारियों के शिकार होते हैं, दुःखी रहते हैं । मलमल के गद्दों पर भी उन्हें नींद नहीं आती। पैसे को छुपाते घूमते हैं । पैसा होकर भी सुख नहीं अनुभव करते हैं।
यह कैसा तंत्र है ? जिसने कोरोनावायरस फैलाकर हमें यह आभास करा दिया है कि तुम्हारे पास न बिजली अपनी है , ना भोजन अपना है , न दाल अपनी है , न दूध अपना है , न हवा अपनी है न धूप अपनी है । जिनके पास यह सब अपने नहीं हैं , वहीं कोरोनावायरस के लॉकडाउन को अपने लिए एक प्रतिबंध मान रहे हैं और जिनके पास यह सब कुछ अपना है वह अपने घर में खुले घूम रहे हैं और अपने सारे काम आराम से निपटा रहे हैं ।
बात साफ है कि भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था ही अच्छी थी । जिसमें व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता दोनों का सम्मान करते हुए उन्हें बनाए रखने का पूरा प्रबंध किया जाता था। इस व्यवस्था ने हमारी आजादी को छीना है और हमारी वह प्राचीन व्यवस्था व्यक्ति की व्यक्तिगत आजादी का सम्मान करना जानती थी । बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।