स्वतंत्रता ने ही छीन ली है हमारी स्वतंत्रता

हम कहने के लिए तो स्वतंत्र हैं , परन्तु क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं ? 
यदि इस पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि वर्तमान व्यवस्था ने हमारी सारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन ली है । आश्चर्य की बात यह है कि हमने इस स्वतंत्रता को स्वयं छिनने दिया है। 
धीरे-धीरे हम सुविधा भोगी होते चले गए और यह तथाकथित स्वतंत्रता, हमारी स्वतंत्रता के लिए ही घातक हो गई । हमें पता ही नहीं चला कि कब हम अपने इंधन के लिए सरकार पर निर्भर हो गए अर्थात रसोई गैस लेकर । 
हमें पता नहीं चला कि कब हम अनाज के लिए ,दूध के लिए , पानी के लिए , बिजली के लिए , सरकार पर निर्भर हो गए , या कहिए कि सरकार के व्यवस्था तंत्र ने हमारा दूध , छाछ , घी , पानी , अनाज , हम से कब छीन लिया – हमें पता नहीं चला । 
सरकार के किसी ना किसी विभाग का कोई न कोई कर्मचारी आता रहा और हमारी स्वतंत्रता छीनता रहा और हम सुविधाओं के नाम पर अपनी स्वतंत्रता को छिनवाते रहे।

तनिक कल्पना करें आज भी गांव के उस व्यक्ति की जिसके पास अपना भोजन है अर्थात अपने खेत में पैदा किया गया अन्न है , जिसके पास अपने कुए का या नल का पानी है , जिसके पास अपनी गाय है , दूध , दही , छाछ , घी सब उसके पास अपने घर के हैं । जिसके पास अपने घर में पैदा की हुई दाल है , सब्जी है और पूरे एक वर्ष के लिए दाल आदि का पूरा प्रबंध है । जिसके पास अपनी साफ हवा है, बिजली नहीं आए तो जिसके पास अपना दीया भी है और जिसके पास सोने के लिए अपना आंगन या अपनी छत है , उसकी स्वतंत्रता और हमारी स्वतंत्रता में कितना अंतर हो गया है ?

प्राचीन भारत में वास्तव में हमारी अर्थव्यवस्था व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बनाए रखने वाली होती थी । इसलिए गांव को भी पूर्ण स्वायत्तशासी संस्था के रूप में विकसित किए जाने की व्यवस्था भारतवर्ष में प्राचीन काल से रही है । उसी की टूटी – फूटी व्यवस्था हम गांवों में आज भी देख रहे हैं । सरकारी योजनाओं से पूर्णतया उपेक्षित रहने वाले गांव आज भी कोरोना संकट का बड़ी सफलता से सामना कर रहे हैं । 
जितने भी टीवी चैनल या समाचार पत्र या इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया वाले लोग हैं , वह गांवों में यह बताने नहीं जा रहे कि कोरोना फैल गया है और आप सावधान रहें । इन सबकी नजर तो अमिताभ बच्चन और दूसरे फिल्मी सितारों या खिलाड़ियों , नेताओं , राजनीतिक दलों और आलीशान कोठियों में रहने वाले लोगों की ओर है ।

अपनी झोपड़ी में निश्चिंत होकर सोने वाले उस किसान की ओर किसी भी टीवी चैनल या समाचार माध्यम का ध्यान नहीं गया है जो आज भी अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का लाभ लेते हुए आराम से कोरोना को परास्त कर रहा है।

अंग्रेजी शासन जब भारत में आया तो उन लोगों ने भारत के गांव की व्यक्तिगत आजादी को लूटने का पूरा तंत्र खड़ा किया । जिसमें कलेक्टर को राजस्व कलेक्ट करने का काम दिया गया और एक सरकारी व्यक्ति के रूप में अधिकारी बनाकर उसे ग्रामों कर रक्त चूसने के लिए बैठा दिया गया । स्वतंत्र भारत में उसे आज भी हम इसी खून चूसने वाले कलेक्टर के नाम से ही जानते हैं । जिला कलेक्टर राजस्व वसूल कर अपने ऊपर के बैठे अधिकारी कमीशन खोर कमिश्नर को देता था । इस कमिश्नर को आज भी हम कमिश्नर के नाम से ही जानते हैं । यह उसमें से अपना हिस्सा अर्थात कमीशन रखकर ऊपर सरकार को पहुंचा देता था । इस प्रकार पूरा तंत्र नीचे से लेकर ऊपर तक गांव को उजाड़ने वाला बन गया । उस समय गांव के आम काश्तकार को लूटने , धमकाने और उसकी भूमि से उसे बेदखल करने के अधिकार पटवारी को दिए गए । पुलिस के एक छोटे से सिपाही को भी यह अधिकार दिए गए कि वह जैसे चाहे वैसे मारपीट कर किसानों को उत्पीड़ित कर सकता है । यही कारण है कि कलेक्टर की ओर से भेजे जाने वाले इन दोनों कर्मचारियों अर्थात पुलिस के सिपाही और पटवारी से हमारे गांव के लोग आतंकित हो जाते थे , जिनका भय अब तक भी बना रहा है।
किसान और जनसाधारण का खून चूसने वाली इस सरकारी व्यवस्था के उपरांत भी गांव के लोगों ने अपने आपको भारत के प्राचीन अर्थव्यवस्था वाले तंत्र से जोड़े रखा । लोगों में आज भी यह प्रवृत्ति पाई जाती है कि वे किसी भी आपातकाल के लिए घर में घी घर रखते हैं , दाल , अन्न , सरसों का तेल आदि का सामान भी पूरे एक वर्ष के लिए रखते हैं । 
यह हमारी उस सोच को दर्शाता है कि किसी भी प्रकार की आकस्मिकता के समय घर में पैसा हो या ना हो लेकिन बच्चों के लिए भोजन , पानी की , दूध की व्यवस्था घर में हो । उस व्यक्ति को न किसी की मार्केट की आवश्यकता है ना घर से बाहर जाकर सब्जी लाने , दूध लाने , पानी लाने या भोजन के लिए आटा लाने की आवश्यकता है । उसे सब्जी के लिए किसी प्रकार के मसाले भी नहीं चाहिए। वह नमक , मिर्च , हल्दी , तेल से सब्जी बनाता है और मस्ती के साथ खाता है । यह सब भी ना हों तो आलू भूनकर बढ़िया वाली चटनी बनाकर छाछ के साथ रोटी खाता है । उस पर घी रखता है और फिर आलीशान कोठियों में या फाइव स्टार होटलों में हजारों रुपए अपने ऊपर खर्च करने वाले उन जल्लादों से अधिक अच्छी नींद उसे आती है जो देश की रग – रग में जोंक की भान्ति चिपट कर उसका रक्त चूस रहे हैं और अपने आपको ‘बड़ा आदमी’ कहते हैं ।
 हमारे इस किसान वर्ग के पास कुछ भी नहीं है लेकिन उसके उपरांत भी अपने आप को भूखा नहीं मरने देता और ना ही यह भाव आने देता कि मैं गरीब हूं । जबकि सरकारी कर्मचारी जो सरकार से वेतन लेता है और अलग से भ्रष्टाचार के माध्यम से भी कमाता है , वह अपने आपको ‘वेतनभोगी’ कहता है और इस शब्द के माध्यम से दीनता का प्रदर्शन करता रहता है । अपने लिए यह शब्द उच्चारण कर याचना का कटोरा लिए घूमता रहता है । कहता रहता है कि मैं भूखा हूं । 
नौकर होकर अपना आत्मसम्मान बेच चुका होता है। इन वेतनभोगियों के लिए वेतन आयोग बैठाती है सरकार । क्या कभी हमने गांव के उन 70 करोड लोगों के लिए कोई वेतन आयोग बैठाया है जो बिना वेतन के भी अपने आप को बादशाह मानते हैं।
यह वह वर्ग है जो आज भी भारत सरकार से बिना कुछ लिए आराम से अपना जीवन यापन कर रहा है , एक वह वर्ग है जो सरकारी नौकर के रूप में सरकार का खून चूसता रहता है , जितना लूटा जा सकता है लूटता है , इसके बाद भी भूखा मरता है और माँगता रहता है ।
इन वेतनभोगियों से बड़े डकैत वह बैठे हैं जो सरकारी योजनाओं को ऊपर से ऊपर ही लपक लेते हैं और उसमें से करोड़ों का कमीशन लेकर उसे ऊपर बैठे बैठे ही डकार जाते हैं । इसके उपरांत भी अनेकों बीमारियों के शिकार होते हैं, दुःखी रहते हैं । मलमल के गद्दों पर भी उन्हें नींद नहीं आती। पैसे को छुपाते घूमते हैं । पैसा होकर भी सुख नहीं अनुभव करते हैं।

यह कैसा तंत्र है ? जिसने कोरोनावायरस फैलाकर हमें यह आभास करा दिया है कि तुम्हारे पास न बिजली अपनी है , ना भोजन अपना है , न दाल अपनी है , न दूध अपना है , न हवा अपनी है न धूप अपनी है । जिनके पास यह सब अपने नहीं हैं , वहीं कोरोनावायरस के लॉकडाउन को अपने लिए एक प्रतिबंध मान रहे हैं और जिनके पास यह सब कुछ अपना है वह अपने घर में खुले घूम रहे हैं और अपने सारे काम आराम से निपटा रहे हैं ।

बात साफ है कि भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था ही अच्छी थी । जिसमें व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता दोनों का सम्मान करते हुए उन्हें बनाए रखने का पूरा प्रबंध किया जाता था। इस व्यवस्था ने हमारी आजादी को छीना है और हमारी वह प्राचीन व्यवस्था व्यक्ति की व्यक्तिगत आजादी का सम्मान करना जानती थी । बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।

फिर कोरोना का इतना भय क्यों है?

ब इतना तो स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना का विषाणु सम्पर्क से फैलता है, इक्यूबेशन काल 14 दिन नहीं 4 दिन है, यह पहले से प्रकृति में है। 

सबसे महत्व की बात है कि इसका आवरण मेद (फैट) से बना है और भीतर इसका आर.ऐन.ए. सुरक्षित है। पिछले वर्षों के प्राप्त आँकड़ों के अनुसार इसकी मृत्युदर 0.1% रही है।

इन्फ्ल्यूएंजा जैसे रोगों से इटली में हर साल लगभग 20,000 लोग मरते हैं। इस वर्ष भी यह दर इसी के आसपास रहेगी। 

अमेरीका में हर वर्ष ऐसे रोगों से औसतन 60,000 लोग मरते हैं। इस वर्ष भी मृत्यदर इतनी ही रहनी है। कोरोना नामक इस विषाणु से संसार में लोग पहले भी ग्रसित होते थे। 

फिर कोरोना का इतना भय क्यों है? 

इसपर विचार करने की आवश्यकता है। इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता कि पड़ौसी देश चीन ने “जैविक हथियार” के रूप में इसका प्रयोग किया हो। अतः  आतंकित हुए बिना इससे बचाव के उपाय किये जाने चाहियें। सरकार के साथ हमें पूरा सहयोग करना चाहिये। यह रोग निश्चित रूप से असाध्य नहीं, मारक नहीं है।

हमारे अनेक वर्षों के अनुभवों के अनुसार कोरोना से मृत्यु का प्रमुख कारण अत्यन्त हानिकारक ऐलोपैथिक दवाएं हो सकती हैं जो रोगी के सुरक्षातंत्र के लिये घातक सिद्ध होरही हैं।

आयुर्वेद, पारम्परिक चिकित्सा, होम्योपैथी, प्रकृतिक चिकित्सा में कोरोना जैसे रोगों के अति उत्तम समाधान उपलब्ध हैं। इन पद्धतियों को अवसर न देना एक बड़ी भूल है।

1. किसी भी वायरस से रक्षा के लिये सबसे जरूरी है ‘रोगनिरोधक शक्ति’ या इम्यूनिटी।

1.2. इस शक्ति के स्रोत हैं शुद्ध व ताजी हवा, शुद्ध जल, ऊर्जा से भरा भोजन, विश्राम और सकारात्मक सोच।

1.3.  विनायल, नायलोन, डिग्रेडेबल आदि सामग्री से बने मास्क पहनने के कुछ ही मिनेट में हमारी जीवनीशक्ति तेजी से घटने लगती है। होता यह है कि हमारे फेफड़ों में बहुत बड़ी मात्रा में डायाक्सीन व फेरोन गैस पहुंचने लगती है जो सुविज्ञात कैंसर का कारण है। ये गैसें मास्क की सन्थेटिक सामग्री से क्षरित (लीचआऊट) होती हैं। 

पीवीसी, नायलोन आदि के इन दुष्प्रभावों पटर अनेक खोजपत्र इसपर पहले से उपलब्ध हैं।

1.4. बाजार में उपलब्ध सभी मंहगे या सस्ते साबुन ऐस.ऐल.ऐस., पैराबीन्ज़, पपृमिटिड फ्लेवर, परमिटिड कलर से बने हैं। साबुन के ये सब विषैले रसायन शरीर के  रोमछिद्रों से सीधे हमारे रक्तप्रवाह में पहुंचकर हमारे सुरक्षा तंत्र को नष्ट करने लगते हैं, दुर्बल व रोगी बनाते हैं। खोजपत्रों के अनुसार परमिटिड रंग व सुगंध भी कैंसरकारक हैं। अतः हमपर उनका विषाक्त प्रभाव होता है। पैराबीन्ज़ का अर्थ है कीटनाशक, कवक नाशक विषैले रसायन। ऐसे साबुन से बार-बार हाथ धोने का अर्थ है अधिक विषाक्तता, अधिक दुर्बलता, अधिक रोग।

1.5. अल्कोहल तथा पैराबीन से बने सैनेटाईज़र भी रोमछिद्रों से सीधे रक्तप्रवाह में पहुंचकर हमें क्रमशः क्षीण बनाने का काम करते हैं।

1.6. कोरोना वायरस को मारने की कोई प्रमाणिक दवा तो बनी नहीं। डेंगू, मलेरिया आदि के अनेक प्रकार के एंटीबायोटिक्स देकर रोगियों को और दुर्बल बनाने की भूल निरन्तर होरही है।

2. तो कुल मिलाकर हम कोरोना से सुरक्षा के नाम पर जितने उपाय कर रहे हैं, वे जीवनीशक्ति नष्ट करने वाले, अधिक रोगी बनाने वाले हैं। इसी प्रकार चलता रहा तो परिणाम यह होगा कि एक-दो मास बाद कुछ करोड़ लोग गम्भीर रूप से बीमार होजाएंगे, जीवनीशक्ति अत्यधिक घटजाने के कारण। 

हम समस्या के समाधान के नाम पर अपनी समस्याओं को कई गुणा बढ़ा तो नहीं रहे, इसपर विचार करना चाहिये।

3. समाधान

हम बचाव व चिकित्सा के लिये निम्न उपाय कर सकते हैं…

3.1. मास्क प्रयोग करना जरूरी है तो सूती वस्त्र के बनाएं। बार-बार धोकर प्रयोग किये जा सकते हैं। प्रेरित किया जाए तो कई गृहणियाँ घर पर ही मास्क बना लेंगी। धोने के लिये निम्बू, फिटकरी, पानी अथवा देसी नरोल साबुन पर्याप्त होंगे।

डिटरजेंट का प्रयोग उचित नहीं।

3.2. वायरस को नष्ट करने के लिये फैट से बनी उसकी सतह को तोड़ने वाली सामग्री चाहिये। तो निम्बू, फिटकरी, गर्म पानी का मिश्रण अथवा रीठा या राख (गाँव के लिये)आदि आसानी से यह काम करेंगे। फैट को नष्ट करने वाली कोई भी सामग्री केवल 20 सेकेंट में विषाणु का आवरण तोड़कर उसके आर.ऐन.ए.को विघटित कर देती है। कपड़े धोने का देसी नरोल साबुन विषरहित है। वह भी बहुत अच्छा काम करेगा।

3.3. सेनेटाईज़र के लिये पानी में फिटकरी, निम्बू का रस, कपूर डालकर प्रयोग करना पर्याप्त है। नीम, तुलसी का काढ़ा या अर्क भी बढ़िया काम करता है। विषैले व महंगे सेनेटाईजर की हमें आवश्यकता ही नहीं। हरकोई घर पर बना लेगा।

3.4. दवाओं के रूप में कुटकी, वासावलेह, सीतोपलादी चूर्ण, कफ़कुठार आदि रसौषधियों का प्रयोग वैद्य के निर्देशन में करना चाहिये। *वासावलेह का प्रयोग निरापद है। एक-एक चम्मच तीन बार रोज गर्म पानी से लेसकते हैं। कैमिस्ट से मिलेगा।

अमृतधारा का प्रयोग निश्चित परिणाम देता है। भारत के वैद्य सैंकड़ों या हजारों वर्ष से अनेक रोगों के साथ विषाणु (वायरस) रोगों पर भी सफ़लता से इनका प्रयोग कर रहे हैं। अमृतधारा तो घर-घर में हजारों साल से चलता रहा है। 

बाजार के अमृतधारा में हानिकारक युक्लिप्टिस आयल 60-70% तक है। अतः चाहें तो घरपर बना लें। 

शुद्ध भीमसेनी कपूर, पिपरमिंट या सत पुदीना, सत अजवाईन; इन तीनो को समान मात्रा में काँच की शीशी में डाल दें। कुछ घण्टे में पिघलकर अमृतधारा बनजाएगा। यह बाजार वाले अमृतधारे से बहुत अधिक तेज है।

बस इसकी एक बूँद 4-5 चम्मच पानी या खाँड, बूरा, शक्कर आदि में मिलाकर रोज प्रातः लेलिया करें। एक बूँद अपने रुमाल पर भी लगालें।

पूरा दिन सभी प्रकार के कीटाणु, विष्णुओं से आपकी रक्षा होगी।

वमन, दस्त,जुकाम, दमे का.दौरा, दस्त, मरोड़, सरदर्द, सर्दी आदि अनेक रोगों में काम करेगा।

खाँसी, जुकाम, ज्वर जैसे रोग होने पर दिन में तीन बार लें। घी, तेल, चिकनाई, ठण्डा बन्द रखें। बहुत अच्छे परिणाम होंगे।

अमलतास की फली का 2-3 इंच का टुकड़ा तोड़कर 150 ग्राम, 150 ग्राम पानी मिलाकर लोहे या मिट्टी या कलई वाले बर्तन में पकाएं। पककर आधा रहे तो छानकर पीलें। कफ़ रोगों में तुरन्त लाभ मिलेगा।

3.5. जीवनीशक्ति बढ़ाने के लिये ऐलोपैथी में अभीतक कुछ विशेष नहीं है। पर भारतीय परम्परा में गिलोय, तुलसी, हल्दी, मेथी, त्रिफ़ला, पारिजात आदि का सफ़ल प्रयोग होरहा है। सुरक्षातंत्र सशक्त बनाने के लिये दैनिक हरे या सूखे तीन आँवले खाएं। सब्जियों, पत्तों का.रस प्रातः व दोपहर को लें। रात्रि सूप लें। रात को भोजन करने से जीवनीशक्ति दुर्बल होती है। होसके तो रात्री भोजन न करें। स्वास्थ्य में बहुत सुधार होगा, आयु लम्बी होगी।

3.6. बाजार की धूप, अगरबत्ती विशैले रसायनिक पदार्थों से बनी हैं। उन्हें जलाने से पर्यावरण प्रदूषित होता है तथा घर के सभी लोगों की जीवनी शक्ति घटती जाती है। अतः उन्हें जलाना बंद कर देना चाहिए। संभव हो तो हवन अथवा अग्निहोत्र करें। उसके लिए शुद्ध सामग्री का ही प्रयोग करें। अथवा गोबर की धूप नियमित रूप से जलाएं। आप देखेंगे कि कुछ ही दिन में घर के वातावरण में सुखद परिवर्तन होंगे। महत्वपूर्ण यह है कि देसी गाय का गोबर, देसी गाय का शुद्ध घी और चुटकी भर गुड़ को मिलाकर जलाने से सभी प्रकार के रोगाणु, कीटाणु, विषाणु नष्ट होते हैं। विशैली गैसें  समाप्त होते हैं तथा सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण होता है। हमारा अनेक वर्षों का अनुभूत अनुभव है।

4.1. ऐलोपैथ अपना काम कर ही रहे हैं, पर आशंका है कि इन दवाओं के कारण कोरोना की मृत्यदर बढ़ रही होगी। इस पर अध्ययन होना चाहिये।

भारत जैसे देश के लिये केवल ऐलोपैथी पर निर्भर रहना उचित नहीं। चिकित्सा की हमारी एक स्मृद्ध परम्परा है। ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि प्लास्टिक सर्जरी, चेचक का टीका, मोतियाबिंद की सर्जरी, बर्फ़ जमाना युरोप ने हमसे सीखा है।

अतः हमें हमारे देश के पारम्परिक चिकित्सकों को भी कोरोना से (स्वतंत्र रूप से) निबटने का पूरा अवसर देना चाहिये।

आशा है उनका एक भी रोगी मरेगा नहीं, सभी ठीक होंगे। बिना दुष्प्रभावों के, बहुत कम खर्च में रोगी ठीक होंगे।

4.2. दोनो (अथवा अधिक) चिकित्सा पद्धतियों के परिणामों के आँकड़ों का संग्रह, तुलनात्मक अध्ययन होना दूरगामी परिणाम देगा। यह प्रयास भारत की स्वास्थ्य नीति के लिये दिशानिर्धारक सिद्ध हो सकता है।


डॉ. राजेश कपूर

चार साहिबज़ादे


हमारा देश कुर्बानियों और शहादत के लिए जाना जाता है और यहां तक के हमारे गुरूओं ने भी देश कौम के लिए अपनी जानें न्यौछावर की हैं…देश और कौम के लिए अपनी शहादत देने के लिए गुरूओं के लाल भी पीछे नहीं रहें…जी हां गुरूओं के बच्चों ने भी देश और कौम की खातिर अपनी जान की बाजी लगा दी…

दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबजादों की शहीदी को कौन भुला सकता है …जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए महान शहादत दी..उनकी शहादत से तो मानो सरहंद की दीवारें भी कांप उठी थी… वो भी नन्हें बच्चों के साथ हो रहे कहर को सुन कर रो पड़ी ।

आज भी जब कोई उस दर्दनाक घटना को याद करता है तो कांप उठता है…गुरू गोबिन्द सिंह के बड़े साहिबजादें बाबा अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर की जंग मुगलों से लड़ते हुए शहीद हो गए थे…उन्होंने ये शहीदी 22 दिसम्बर और 27 दिसम्बर 1704 को पाई… इस दौरान बडे़ साहिबजादों में बाबा अजीत सिंह की उम्र 17 साल थी जबकि बाबा जुझार सिंह की उम्र महज 13 साल की थी….मगर जो उम्र बच्चों के खेलने कूदने की होती है उस उम्र में छोटे साहिबजादों ने शहीदी प्राप्त की…छोटे साहिबजादों को सरहंद के सूबेदार वजीर खान ने जिंदा दीवारों में चिनवा दिया था… उस समय छोटे साहिबजादों में बाबा जोरावर सिंह की उम्र 8 साल थी …जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र केवल 5 साल की थी…इस महान शहादत के बारे में हिन्दी के कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है …

जिस कुल जाति देश के बच्चे दे सकते हैं जो बलिदान…

उसका वर्तमान कुछ भी हो भविष्य है महा महान

गुरूमत के अनुसार अध्यात्मिक आनन्द पाने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व मिटाना पड़ता है…और उस परम पिता परमेश्वर की रजा में रहना पड़ता है…इस मार्ग पर गुरू का भगत , गुरू का प्यारा या सूरमा ही चल चल सकता है…इस मार्ग पर चलने के लिए श्री गुरू नानक देव जी ने सीस भेंट करने की शर्त रखी थी…एक सच्चा सिख गुरू को तन , मन और धन सौंप देता है और वो किसी भी तरह की आने वाली मुसीबत से नहीं घबराता…इसी लिए तो कहा भी गया है…

तेरा तुझको सौंप के क्या लागै है मेरा

भारत पर मुगलों ने कई सौ बरस तक राज किया…उन्होंने इस्लाम धर्म को पूरे भारत में फैलाने के लिए हिन्दुओं पर जुल्म भी किए… मुगल शासक औरगंजेब ने तो जुल्म की इंतहा कर दी और जुल्म की सारी हदें तोड़ डाली…हिन्दुओं को पगड़ी पहनने और घोड़ी पर चढ़ने की रोक लगाई गई… और एक खास तरह टैक्स भी हिन्दु जाति पर लगाया गया जिसे जजिया टैक्स कहा जाता था…हिन्दुओं में आपसी कलह के कारण जुल्मों का विरोध नहीं हो रहा था… 

इन्हीं जुल्मों के खिलाफ आवाज उठाई दशम पिता गुरू गोबिन्द सिंह जी ने…उन्होंने निर्बल हो चुके हिन्दुओं में नया उत्साह और जागृति पैदा करने का मन बना लिया…इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए गुरू गोबिन्द सिंह जी ने 1699 को बैसाखी वाले दिन आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की…कई स्थानों पर सिखों और हिन्दुओं ने खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… मुगल शासकों के साथ साथ कट्टर हिन्दुओं और उच्च जाति के लोगों ने भी खालसा पंथ की स्थापना का विरोध किया… कई स्थानों पर माहौल तनाव पूर्ण हो गया…सरहंद के सूबेदार वजीर खान और पहाड़ी राजे एकजुट हो गए और 1704 में गुरू गोबिन्द सिंह जी पर आक्रमण कर दिया…सिखों ने बड़ी दलेरी से इनका मुकाबला किया और सात महीने तक आनन्दपुर के किले पर कब्जा नहीं होने दिया–आखिर हार कर मुगल शासकों ने कुरान की कसम खाकर और हिन्दु राजाओं ने गऊ माता की कसम खाकर गुरू जी से किला खाली कराने के लिए विनती की…20 दिसम्बर 1704 की रात को गुरू गोबिन्द जी ने किले को खाली कर दिया गया और गुरू जी सेना के साथ रोपड़ की और कूच कर गए…जब इस बात का पता मुगलों को लगा तो उन्होंने सारी कसमें तोड़ डाली और गुरू जी पर हमला कर दिया…लड़ते – लड़ते सिख सिरसा नदी पार कर गए और चमकौर की गढ़ी में गुरू जी और उनके दो बड़े साहिबजादों ने मोर्चा संभाला…

ये जंग अपने आप में खास है क्योंकि 80 हजार मुगलों से केवल 40 सिखों ने मुकाबला किया था…जब सिखों का गोला बारूद खत्म हो गया तो गुरू गोबिन्द सिंह जी ने पांच पांच सिखों का जत्था बनाकर उन्हें मैदाने जंग में भेजा ..इस लड़ाई में गुरू जी से इजाजत लेकर बड़े साहिबजादें भी शामिल हो गए …लड़ते लड़ते वो सिरसा नदी पार कर गए…बड़े साहिबजादें छोटी सी उम्र में मुगलों से मुकाबला करते हुए शहीद हो गए…अब सवाल ये उठता है कि छोटे साहिबजादों का आखिर क्या कसूर था कि सरहंद के सूबेदार ने नन्हें बच्चों की उम्र का भी लिहाज नहीं रखा…और उन्हें जिन्दा सरहंद की दीवारों में चिनवा दिया । मगर छोटे साहिबजादों ने इन जुल्मों की परवाह नहीं की…

दूसरी ओर सिरसा नदी पार करते वक्त गुरू जी की माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादे बिछुड़ गए…गुरू जी का रसोईया गंगू ब्राहम्ण उन्हें अपने साथ ले गया …रात को उसने माता जी की सोने की मोहरों वाली गठरी चोरी कर ली…सुबह जब माता जी ने गठरी के बारे में पूछा तो वो न सिर्फ आग बबूला ही हुआ…बल्कि उसने गांव के चौधरी को गुरू जी के बच्चों के बारे में बता दिया…और इस तरह ये बात सरहिन्द के नवाब तक पहुंच गई…सरहंद के नवाब ने उन्हें ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया….नवाब ने दो तीन दिन तक उन बच्चों को इस्लाम धर्म कबूल करने को कहा…जब वो नहीं माने तो उन्हें खूब डराया धमकाया गया ,मगर वो नहीं डोले और वो अडिग रहें …उन्हें कई लालच दिए गए…लेकिन वो न तो डरे , न ही किसी बात का लोभ और लालच ही किया…न ही धर्म को बदला… सुचानंद दीवान ने नवाब को ऐसा करने के लिए उकसाया और यहां तक कहां कि यह सांप के बच्चे हैं इनका कत्ल कर देना ही उचित है…आखिर में काजी को बुलाया गया…जिसने उन्हें जिंदा ही दीवार में चिनवा देने का फतवा दे दिया…उस समय मलेरकोटला के नवाब शेर मुहम्मद खां भी वहां उपस्थित थे…उसने इस बात का विरोध किया…

फतवे के अनुसार जब 27 दिसम्बर 1704 में छोटे साहिबजादों को दीवारों में चिना जाने लगा तो…जब दीवार गुरू के लाडलों के घुटनों तक पहुंची तो घुटनों की चपनियों को तेसी से काट दिया गया ताकि दीवार टेढी न हो जाए…जुल्म की इंतहा तो तब हो गई…जब दीवार साहिबजादों के सिर तक पहुंची तो शाशल बेग और वाशल बेग जल्लादों ने शीश काट कर साहिबजादों को शहीद कर दिया…छोटे साहिबजादों की शहीदी की खबर सुनकर उनकी दादी स्वर्ग सिधार गई…इतने से भी इन जालिमों का दिल नहीं भरा और लाशों को खेतों में फेंक दिया गया…जब इस बात की खबर सरहंद के हिन्दू साहूकार टोडरमल को लगी तो उन्होंने संस्कार करने की सोची..उसको कहा गया कि जितनी जमीन संस्कार के लिए चाहिए…उतनी जगह पर सोने की मोहरें बिछानी पड़ेगी…कहते हैं कि टोडरमल जी ने उस जगह पर अपने घर के सब जेवर और सोने की मोहरें बिछा कर साहिबजादों और माता गुजरी का दाह संस्कार किया…संस्कार वाली जगह पर बहुत ही सुन्दर गुरूव्दारा ज्योति स्वरूप बना हुआ है जबकि शहादत वाली जगह पर बहुत बड़ा गुरूव्दारा है…यहां हर साल 25से 27 दिसम्बर तक शहीदी जोड़ मेला लगता है…जो तीन दिन तक चलता है…धर्म की रक्षा के लिए …नन्हें बालकों ने हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए मगर हार नहीं मानी…मुगल नवाब वजीर खान के हुक्म पर इन्हें फतेहगढ़ साहिब के भौरा साहिब में जिंदा चिनवा दिया गया …यही नहीं छोटे साहिबजादे बाबा फतेह सिंह के नाम पर इस स्थान का नाम फतेहगढ़ साहिब रखा गया था….

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत । पूर्जा पूर्जा कट मरे, कबहू न छोड़े खेत ।।

धर्म ईमान की खातिर दशम पिता के इन राजकुमारों ने शहीदी पाई …लेकिन वो सरहंद के सूबेदार के आगे झुके नहीं …बल्कि उन्होंने खुशी खुशी शहीदी प्राप्त की…पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में हर साल साहिबजादों की याद में तीन दिवसीय मेला लगता है… गुरूव्दारा श्री फतेहगढ़ साहिब में बना ठंडा बुर्ज का भी अहम महत्व है…यही पर माता गुजरी ने तकरीबन आठ वर्ष तक दोनों छोटे साहिबजादों को धर्म और कौम की रक्षा का पाठ पढ़ाया था..इसी ठंडे बुर्ज में पोष माह की सर्द रातों में माता गुजरी ने बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह को धर्म की रक्षा के लिए शीश न झुकाते हुए अपने धर्म पर कायम रहने की शिक्षा दी थी …गुरू गोबिन्द सिंह जी के चारो साहिबजादों की पढ़ाई और शस्त्र विद्या गुरू साहिब की निगरानी में हुई …उन्होंने घुड़सवारी , शस्त्र विद्या और तीर अंदाजी में अपने राजकुमारों को माहिर बना दिया….दशम पातशाह के चारों राजकुमारों को साहिबजादें इसलिए कहा जाता है …क्योंकि दो दो साहिबजादें इक्टठे शहीद हुए थे … इसलिए इनको बड़े साहिबजादें और छोटे साहिबाजादे कहकर याद किया जाता है…जोरावर सिंह जी की शहीदी के समय उम्र 8 साल जबकि बाबा फतेह सिंह की उम्र 5 साल की थी ….इनके नाम के साथ बाबा शब्द इसलिए लगाया क्योंकि उन्होंने इतनी छोटी उम्र में शहादत देकर मिसाल पेश की …उनकी इन बेमिसाल कुर्बानियों के कारण इन्हें बाबा पद से सम्मानित किया गया…

चारों तरफ श्रद्धा और भक्ति का उमड़ता जन सैलाब…हर कोई रंगा है भक्ति के रंग में …जगह जगह छोटे साहिबजादों की शहीदी दिवस को समर्पित लंगर लगाए जाते हैं…दाल रोटी के लंगर तो लगाए ही जाते हैं वहीं सर्दी का महीना होने के कारण जगह – जगह चाय के लंगर लगाए जाते हैं … रास्तों में लंगर लगाए जाते हैं ताकि आने जाने वाला कोई भी राही लंगर छके बिना न जा सके पोष के महीने में गुरू गोबिन्द सिंह जी के साहिबजादों को समर्पित प्रभात फेरिया निकाली जाती है …नगर कीर्तन निकाले जाते हैं …निहंग सिंहों के हैरत अंगेज कारनामे देखकर हर कोई दांतों तले उंगुलियां दबाने को मजबूर हो जाता है …छोटे निहंग सिंहो के करतब देखते ही बनते है कि देखने वाले बस देखते ही रह जाते हैं …

पंजाब के फतेहगढ़ साहिब में शहीदी जोड़ मेले में लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. ताकि इस महान शहादत को वो श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकें…