"मेरा मानना है कि आतंकवादी सिर्फ मौत के हकदार होते हैं। किसी भी अधिकार के नही, मानवाधिकार की बात तो भूल ही जाइए।"
SC के एक टिप्पणी के बाद एक पूर्व सैनिक ने दुखी मन से कहा कि "आप युद्ध की क्रूरता के बारे में क्या जानते हैं...? आप में से कितनो ने अपने बेटा खोया, अपनी बेटी को विधवा के रूप में देखा, आपके कितने पोते पोती बिना पिता के पल रहे हैं। देश की रक्षा के लिए आपने क्या खोया है?"
मानवाधिकार की बात सुनने में बहुत अच्छा लगता है जब आप और आपका परिवार एसी रूम में टीवी देखकर बहस करते हैं। कभी जिहादियों की गोलियों और पत्थरों की बरसात नहीं झेले हैं।
एक सैनिक के ऊपर FIR हो जाता है जब उसकी गोलियों से दो आतंकवादी मार दिए जाते हैं। उसे साबित करना पड़ता है कि मरने वाले आतंकवादी ही थे क्योंकि उनकी गोलियों से सैनिक नहीं मरा। पैर में गोली क्यो नहीं मारी, सरेंडर क्यों नही कराया...?
कितनी तकलीफ होती है जब एक एनकाउंटर को ज्यूडिशियल इंक्वारी से गुजरना पड़ता है। दुनिया के सारे देश आतंकवादियों को खत्म करने से सैनिकों का सम्मान करते हैं, भारत में वकील कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
खुद की सरकार राजनीति के लिए कोर्ट मार्शल करा देती है। 2014 से पहले कई बार हुआ। हमारी न्याय व्यवस्था आतंकियों के मानवाधिकार की चिंता करती है, देश के सैनिकों का नहीं।
आत्म रक्षा में गोली चलाना गुनाह हो जाता है। हमारे पास दो ही रास्ता होता है, मर कर शहीद कहलाओ या मारकर कटघरे में खड़े हो जाओ। सालों तक अदालतों के चक्कर लगाओ।
हम उनके साथ सीमा पर गोली तो नहीं चला सकते लेकिन उनकी समस्या पर नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं।