डाटा पर डाका : खतरा तो है!!

वर्ष 2014 में हुई थी दुनिया की सबसे बड़ी डाटा चोरी की घटना, रूस के हैकर ने दिया था इस घटना को अंजाम...
आज के दौर की सबसे बड़ी चुनौती है कि हम इंटरनेट का इस्तेमाल किए बिना रह नहीं सकते। सोशल साइटें और तमाम अन्य प्लेटफार्म हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन के अंग बन गए हैं। हमारा डाटा यानी हमारे बारे में तमाम निजी और महत्वपूर्ण जानकारी की चोरी अब आम बात हो गई है। ताजा खुलासा फेसबुक का है जिसने कुछ दिन पहले दुनिया के सामने स्वीकार किया कि उसके 08 करोड़ 70 लाख उपयोगकर्ताओं का डाटा चोरी हो गया है। इनमें पांच लाख साठ हजार भारतीय यूजर भी शामिल हैं। वर्ष 2014 में भी डाटा चोरी की एक घटना हुई थी जिसे दुनिया में अब तक की सबसे बड़ी डाटा चोरी माना जाता है। अमेरिकी इंटरनेट सुरक्षा कंपनी होल्ड सिक्यूरिटी के इस दावे ने दुनिया में हड़कंप मचा दिया था कि एक रूसी हैकर समूह ने पचास करोड़ ईमेल पतों के लगभग सवा अरब यूजरनेम और पासवर्ड हैक कर दिए हैं। बताया गया कि यह डाटा करीब चार लाख बीस हजार वेबसाइटों से चुराया गया था जिनमें इंटरनेट जगत की कई बड़ी कंपनियां और हर बड़ी वेबसाइट शामिल थी।
डाटा चोरी की छोटी बड़ी घटनाएं निरंतर हो रही हैं जिससे पता चलता है कि इंटरनेट पर व्यक्ति की निजता और जानकारी को खतरा अब सब जगह है। जाने माने तकनीकविद बालेन्दु शर्मा दाधीच की इस बात में बड़ा दम है, " सोशल मीडिया पर इस या उसके हाथों नाहक प्रभावित या इस्तेमाल हो जाना बहुत आसान है। समझिए कि अगर कोई सेवा मुफ्त मिल रही है तो आप ही उसका उत्पाद हैं।"
हम अपने ईमेल एकाउंट के जरिये ही इंटरनेट से जुड़ी तमाम गतिविधियों और सेवाओं से जुड़ते हैं। प्राय: हर हाथ में मोबाइल फोन है। तमाम उपयोगी एप हम डाउनलोड करते हैं। ऊंची रेटिंग हमें कोई एप डाउनलाड करने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन क्या ऊंची रेटिंग हमारी व्यक्तिगत जानकारी के सुरक्षित होने की गारंटी हो सकती है। बालेन्दु दाधीच के अनुसार, " वह ऊंची रेटिंग फर्जी भी हो सकती है। गूगल सर्च में किसी वेबसाइट का सबसे ऊपर आना तकनीकी चातुर्य का खेल हो सकता है।" उनका कहना है कि सोशल मीडिया साइटों और ईमेल पर भले ही आप कितने भी मजबूत पासवर्ड लगा दें, आपका अधिकांश डाटा किसी विभाग, कंपनी, दल या एजेंसी की पहुंच में हो सकता है।"
दरअसल निजता की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे को लेकर आज दुनिया के हर देश में चिंता है। कोई भी उपाय सुरक्षा की शत प्रतिशत गारंटी नहीं दे सकता। डाटा चोरी की घटनाओं और इसे लेकर किए गए उपायों की बात करते हुए बालेन्दु दाधीच बताते हैं, "व्यक्ति की निजता तमाम दिशाओं से संकट में है। अमेरिकी खुफिया एजेंसियां, साइबर अपराधी, राजनीतिक दल, एप बनाने वाले लोग हों, विभिन्न प्रकार के सर्वे करने वाली एजेंसियां हों या फिर खुद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म चलाने वाले संस्थान- यह सूची बहुत लंबी है। ऐसा नहीं कि बचाव के उपाय नहीं किए जा रहे। काफी उपाय किए गए, कदम उठाए गए- तकनीकी भी और कानूनी भी। इसके बावजूद आज बहुत बड़ी चुनौती है सोशल मीडिया पर अपने आपको, अपने विचारों को, अपनी सूचनाओं को और अपनी निजता को सुरक्षित रखना। "

पाखंड का दूसरा नाम-भारतीय सेकुलर मीडिया

एक जमाना था जब किसी अखबार की कोई खबर गलत निकलती थी तो संवाददाता से लेकर संपादक तक उस चूक की जिम्मेदारी लेते थे। अब परिस्थितियां अलग हैं। अब मानो होड़ है कि कौन कितना झूठ फैलाएगा। कोई झूठ पकड़ा जाता है तो उसे स्वीकार करने के बजाय अगले झूठ की तैयारी शुरू हो जाती है। मुख्यधारा मीडिया में यह चलन बहुत पुराना नहीं है।
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मीडिया की आजादी जरूरी है लेकिन अखबार और चैनल अगर सरकारी विज्ञापनों के लिए अपनी आजादी को गिरवी रख दें तो इसके लिए किसे दोषी माना जाए? दिल्ली में इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है। इसी का असर है कि मीडिया को जलते खेत तो दिख गए, लेकिन दिल्ली के अंदर प्रदूषण के कारण नहीं दिखाई दिए। जो मुख्यमंत्री कुछ दिन पहले तक पूरे पेज के विज्ञापन देकर दिल्ली में प्रदूषण की समस्या हल कर देने का दावा कर रहा था, उसे जवाबदेह ठहराने के बजाय अधिकतर अखबारों और चैनलों ने लोगों को भ्रमित करने पर ज्यादा ध्यान दिया। कुछ चैनलों पर किसानों के लिए ऐसी टिप्पणियां की गईं जो कतई सही नहीं मानी जा सकतीं। ऐसी हर वह खबर दबाई गई जिससे प्रदूषण के मोर्चे पर अरविंद केजरीवाल सरकार की विफलता खुलकर सामने आती हो। दिल्ली की मीडिया का सारा जोर हरियाणा और केंद्र सरकार को दोषी ठहराने पर था, जबकि सैटेलाइट तस्वीरों के अनुसार सबसे ज्यादा खेत पंजाब में जलाए गए।
बीबीसी और जनसत्ता ने खबर छापी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक किसान संगठन ने कहा है कि पराली जलाते रहेंगे चाहे कुछ भी हो जाए। जबकि यह बात कांग्रेस से जुड़े किसान संगठन ने कही थी। यह कैसे मान लिया जाए कि इन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों का सामान्य ज्ञान इतना कमजोर है? वास्तव में ऐसी गलतियां बहुत सोच-समझकर योजना के तहत की जाती हैं ताकि लोगों के बीच कोई झूठी राय स्थापित की जा सके। बाद में कहीं कोने में छपा छोटा सा खंडन देखने वैसे भी कोई नहीं आता। झूठ फैलाने के मीडिया के इस खेल के बीच कुछ अपवाद भी रहे, जैसे कि टाइम्स नाऊ ने बताया कि कैसे दिल्ली सरकार ने पर्यावरण रक्षा के लिए वसूले जाने वाले टैक्स का 80 प्रतिशत हिस्सा खर्च ही नहीं किया।
2014 के बाद से कई अखबार और चैनल मानो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य है कि किसी तरह मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस में जान फूंकी जाए। तभी सोनभद्र हत्याकांड पर जब प्रियंका गांधी वाड्रा अपनी राजनीति चमकाने पहुंचीं तो मीडिया उनका मददगार बना। चैनलों ने ब्रेकिंग न्यूज चलाई कि प्रियंका को उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। डीजीपी ने सफाई दी कि उन्हें न तो गिरफ्तार किया गया और न ही हिरासत में लिया गया है। धारा 144 लागू होने के कारण उन्हें जिले की सीमा से पहले रोका गया है। तमाम चैनल और वेबसाइट देर शाम तक वही झूठ चलाते रहे जिसका आदेश उन्हें 'ऊपर' से मिला था। सोनभद्र की घटना का मुख्य आरोपी सपा का बड़ा नेता है। यह बात शुरू से ही सब जानते थे, लेकिन किसी तथाकथित राष्ट्रीय अखबार या चैनल ने यह बात नहीं बताई। जब मुख्यमंत्री योगी ने अपने बयान में यह बात कही तब भी ज्यादातर चैनलों ने बयान के उस हिस्से को काट दिया।
गांधी परिवार सत्ता में हो या न हो, मीडिया पर उसका नियंत्रण देखने लायक रहता है। प्रियंका वाड्रा न तो सांसद हैं, न विधायक, लेकिन उनके ट्वीट आजकल चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज बन रहे हैं। मानो विपक्ष के किसी बड़े नेता का बड़ा राजनीतिक बयान हो। प्रियंका वाड्रा आए दिन झूठ या दुष्प्रचार ट्वीट करती रहती हैं और मीडिया उसे पूरा महत्व देता है। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले में एक न्यायिक विवाद में गवाह पर हमले की खबर आई तो प्रियंका वाड्रा ने ट्वीट किया,''दलित पर हमला किया गया।'' जबकि ये राजपूत समुदाय के दो लोगों के बीच आपसी विवाद का मामला था। कुछ ऐसी ही स्थिति पी. चिदंबरम की है, जो आर्थिक गबन के मामले में तिहाड़ जेल की हवा खा रहे हैं। जेल में उनके पास मोबाइल या कंप्यूटर नहीं है, लेकिन उनके नाम से आर्थिक से लेकर विदेश नीति तक के मामलों पर ट्वीट किए जा रहे हैं। मीडिया इनको महत्वपूर्ण बयान की तरह दिखा रहा है। सवाल उठता है कि न्यायालय के आदेश पर जेल में बंद एक नेता को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखने का ये खेल किसके इशारे पर हो रहा है?
मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने एक कार्यक्रम में असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी की प्रशंसा की और कहा कि इसे लेकर मीडिया के एक वर्ग ने भ्रम फैलाने की कोशिश की थी। ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने उनकी बात के इस हिस्से को हटा दिया। अखबारों ने अवैध घुसपैठियों की गंभीर समस्या पर देश के मुख्य न्यायाधीश के विचारों को अंदर के पन्नों में छिपाकर छापा। जबकि निचली अदालत का कोई जज या कोई अन्य संस्था एनआरसी के विरोध में बोल दे तो यही मीडिया उसे प्रमुखता के साथ छापता है। एक राष्ट्रीय महत्व के विषय पर मीडिया के इस संदिग्ध व्यवहार के पीछे कौन सी ताकतें हैं, यह अब किसी से छिपा नहीं है।
भगवान राम के नाम पर जो सोचा-समझा षड्यंत्र कुछ समय पहले शुरू हुआ था वह भी जारी रहा। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एक मुसलमान लड़के ने इंजीनियरिंग के छात्रों पर जबरन जय श्रीराम बुलवाने का आरोप लगाया। देखते-देखते यह बात राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में थी। ज्यादातर ने इसे ऐसे छापा मानो उनके संवाददाता ने खुद ऐसा होते हुए देखा है। जांच में पता चला कि आरोप झूठा था। जिस मीडिया ने इस समाचार को इतना महत्व दिया, वह तब मौन हो गई जब खबर झूठी निकली। कुछ स्थानीय मराठी अखबारों के अलावा किसी चैनल या अखबार ने इस समाचार को जगह नहीं दी। बिहार के छपरा में बकरी चोरी के आरोप में अनुसूचित जाति के कुछ ग्रामीणों ने 3 लोगों को मार दिया। इनमें दो अनुसूचित जाति के ही हिंदू थे, जबकि एक मुसलमान। ज्यादातर चैनलों व अखबारों ने खबर ऐसे दिखाई मानो पीडि़त मुसलमान हों। बीबीसी की हिंदी वेबसाइट ने तो इस घटना के सहारे एक रिपोर्ट छापी जिसका शीर्षक था कि 'क्या मुसलमानों को इस देश में रहने का अधिकार नहीं?'
मुख्यधारा मीडिया के अनुसार भाजपा शासित राज्यों में होने वाले अपराध की हर छोटी-बड़ी घटना का सीधा संबंध वहां के मुख्यमंत्री और कई बार प्रधानमंत्री से होता है। लेकिन यही मीडिया बंगाल में हिंसा के लिए जिम्मेदार नेता का नाम अब तक नहीं पता कर पाया है। जब भाजपा नेता मुकुल रॉय ने कहा कि उनके कार्यकर्ता ममता बनर्जी के निर्देश पर मारे जा रहे हैं तो कुछ चैनलों को यह बयान 'अजीबोगरीब' लगा। न्यूज18 ने कहा कि मुकुल रॉय हिंसा का ठीकरा ममता पर फोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। एबीपी न्यूज के मुताबिक 'मुकुल रॉय हिंसा की राजनीति कर रहे हैं।' भारतीय मीडिया का यह पाखंड ही उसकी पहचान है। यह एकतरफा राजनीतिक हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने के लिए भी 'ठीकरा फोड़ना' और 'राजनीति करना' जैसे शब्द इस्तेमाल करता है।
राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर अखबार और चैनल किसी खबर को कैसे बदल देते हैं, इसके भी ढेरों उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। बीते महीने के लिए जीएसटी की वसूली के आंकड़े आए। इसमें अच्छी-खासी बढ़त थी। लेकिन कुछ अखबारों और चैनलों ने इसे भी गिरावट के तौर पर दिखाया। ताकि आर्थिक मंदी के नाम पर जारी राजनीति को और खाद-पानी मिल सके। अक्तूबर महीने में ऑटो क्षेत्र की बिक्री के आंकड़े भी यही इशारा कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे सुस्ती के माहौल से निकल रही है। लेकिन आजतक जैसे चैनल और नवभारत टाइम्स जैसे अखबार ने फर्जी खबर चलाई कि त्यौहारों के सीजन में भी इस क्षेत्र को कोई राहत नहीं है।

आखिर शिव में ऐसा क्या है?

आखिर शिव में ऐसा क्या है? जो उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक वे एक जैसे पूजे जाते हैं। उनके व्यक्तित्व में कौन सा चुंबक है जिस कारण समाज के भद्रलोक से लेकर शोषित, वंचित, भिखारी तक उन्हें अपना मानते हैं। वे क्यों सर्वहारा के देवता हैं। उनका दायरा इतना व्यापक क्यों है?
राम का व्यक्तित्व मर्यादित है। कृष्ण का उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी। वे आदि हैं और अंत भी। शायद इसीलिए बाकी सब देव हैं। केवल शिव महादेव। वे उत्सव प्रिय हैं। शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की उनके पास कला है। वे उस समाज में भरोसा करते हैं। जो नाच-गा सकता हो। यह शैव परंपरा है। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं ‘उदास परंपरा बीमार समाज बनाती है।’ शिव का नृत्य श्मशान में भी होता है। श्मशान में उत्सव मनाने वाले वे अकेले देवता है। लोक गायन में भी वे उत्सव मनाते दिखते हैं। ‘खेले मसाने में होरी दिगंबर खेले मसाने में होरी। भूत, पिशाच, बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी।’
 
विपरीत ध्रुवों और विषम परिस्थितियों से अद्भुत सामंजस्य बिठानेवाला उनसे बड़ा कोई दूसरा भगवान् नहीं है। मसलन, वे अर्धनारीश्वर होकर भी काम पर विजेता हैं। गृहस्थ होकर भी परम विरक्त हैं। नीलकंठ होकर भी विष से अलिप्त हैं। उग्र होते हैं तो तांडव, नहीं तो सौम्यता से भरे भोला भंडारी। परम क्रोधी पर दयासिंधु भी शिव ही हैं। विषधर नाग और शीतल चंद्रमा दोनों उनके आभूषण हैं। उनके पास चंद्रमा का अमृत है और सागर का विष भी। सांप, सिंह, मोर, बैल, सब आपस का बैर-भाव भुला समभाव से उनके सामने है। वे समाजवादी व्यवस्था के पोषक। वे सिर्फ संहारक नहीं कल्याणकारी, मंगलकर्ता भी हैं। यानी शिव विलक्षण समन्वयक॒ हैं।
शिव गुट निरपेक्ष हैं। सुर और असुर दोनों का उनमें विश्वास है। राम और रावण दोनों उनके उपासक हैं। दोनों गुटों पर उनकी समान कृपा है। आपस में युद्ध से पहले दोनों पक्ष उन्हीं को पूजते हैं। लोक कल्याण के लिए वे हलाहल पीते हैं। वे डमरू बजाएं तो प्रलय होता है, प्रलयंकारी इसी डमरू से संस्कृत व्याकरण के चौदह सूत्र भी निकलते हैं। इन्हीं माहेश्वर सूत्रों से दुनिया की कई दूसरी भाषाओं का जन्म हुआ।
आज पर्यावरण बचाने की चिंता विश्वव्यापी है। शिव पहले पर्यावरण प्रेमी हैं, पशुपति हैं। निरीह पशुओं के रक्षक हैं। शिव ने नंदी को वाहन बनाया। सांड़ को अभयदान दिया। जंगल कटने से बेदखल सांपों को आश्रय दिया।
कोई उपेक्षितों को गले नहीं लगाता, महादेव ने उन्हें गले लगाया। श्मशान, मरघट में कोई नहीं रुकता। शिव ने वहां अपना ठिकाना बनाया। जिस कैलास पर ठहरना कठिन है। जहां कोई वनस्पति नहीं, प्राणवायु नहीं, वहां उन्होंने धूनी लगाई। शिव केवल भभूत का इस्तेमाल करते है। उनमें रत्ती भर लोक दिखावा नहीं है। शिव उसी रूप में विवाह के लिए जाते हैं, जिसमें वे हमेशा रहते हैं। वे साकार हैं, निराकार भी। इस इससे अलग लोहिया उन्हें गंगा की धारा के लिए रास्ता बनानेवाला अद्धितीय इंजीनियर मानते थे।

शिव न्यायप्रिय हैं। मर्यादा तोड़ने पर दंड देते हैं। काम बेकाबू हुआ तो उन्होंने उसे भस्म किया। अगर किसी ने अति की तो उनके पास तीसरी आंख भी है। दरअसल तीसरी आंख सिर्फ ‘मिथ’ नहीं है। आधुनिक शरीर शास्त्र भी मानता है कि हमारी आंख की दोनों भृकुटियों के बीच एक ग्रंथि है और वह शरीर का सबसे संवेदनशील हिस्सा है, रहस्यपूर्ण भी। इसे ‘पीनियल ग्रंथि’ कहते हैं। यह हमेशा सक्रिय नहीं रहती पर इसमें संवेदना ग्रहण करने की अद्भुत ताकत है। इसे ही शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं। उसके खुलने से प्रलय होगा। ऐसी अनंत काल से मान्यता है।
शिव का व्यक्तित्व विशाल है। वे काल से परे महाकाल है। सर्वव्यापी हैं, सर्वग्राही हैं। सिर्फ भक्तों के नहीं देवताओं के भी संकटमोचक हैं। उनके ‘ट्रबल शूटर’ हैं। शिव का पक्ष सत्य का पक्ष है। उनके निर्णय लोकमंगल के हित में होते हैं। जीवन के परम रहस्य को जानने के लिए शिव के इन रूपों को समझना जरूरी होगा, क्योंकि शिव उस आम आदमी की पहुंच में हैं, जिसके पास मात्र एक लोटा जल है। इसीलिए उत्तर में कैलास से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तक उनकी व्याप्ति और श्रद्धा एक सी है.

सबका हल सिर्फ हिन्दुत्व के पास




11 सितंबर 1893. शिकागो की धर्म संसद. स्वामी विवेकानंद का ऐतिहासिक संबोधन याद कीजिए. उन्होंने कहा- सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इनकी भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं. अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं | 
दुनिया में एक तरफ खिलाफत की जंग है. पूरी दुनिया को इस्लाम के परचम तले लाने की जिहाद. इस्लाम के जन्म के सौ साल से भी कम समय में तलवार के दम पर इस्लाम को फैलाने का रक्तरंजित इतिहास | 
दूसरी तरफ चर्च है, जो पूरी दुनिया में ईसाइयत चाहता है, इस पर प्रत्यक्ष रूप से काम करता है. लेकिन हिन्दु. क्या कभी आपने किसी हिन्दु दार्शनिक, संत, महात्मा के मुंह से सुना कि हमें पूरी दुनिया को हिन्दू बना देना है. क्या आप सनातन धर्म के अनंत ग्रंथों में से कहीं एक उद्धरण निकालकर दे सकते हैं, जो ये कामना करता हो कि हमें दुनिया पर हुकूमत करनी है | 
हम सर्वे भवन्तु सुखिनः की परंपरा वाले हैं. हम चींटी से लेकर पीपल तक सबमें प्रभु के दर्शन कर लेते हैं. हिन्दू होना सहज है. इसके लिए आपको कोई प्रयास नहीं करना पड़ता. जैसे सांस लेने के लिए क्या आप कोई प्रयास करते हैं. वहीं अन्य मजहब या मत को देखें, तो आप पाएंगे कि वहां कृत्रिमता है. वहां उस धर्म में समावेश के लिए आपको प्रयास करने होते हैं, विशिष्ट किस्म के प्रतीकों को पहनना, ओढ़ना और जीना पड़ता है |
भारत में पहली मस्जिद सन 629 में बनी, तो वह एक हिन्दू राजा के आदेश पर ही तैयार हुई थी. दक्षिण भारत के तट पर मुसलमानों ने सन 700 के आस-पास बसना शुरू कर दिया था. 8 वीं शताब्दी ने पहला इस्लामिक हमला मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध प्रांत पर किया. सिंध का हिस्सा पहली बार आधिकारिक रूप से खिलाफत साम्राज्य का प्रांत घोषित हुआ. सन 1200 आते-आते दिल्ली में मुसलमानों ने सल्तनत यानी सुलतान का शासन स्थापित कर दिया था. 1857 में आधिकारिक रूप से दिल्ली पर ईस्ट इंडिया कंपनी या यूं कहिए कि अंग्रेजों का राज स्थापित हो गया. आठ सौ साल तक भारत में मुस्लिम सुलतानों, बादशाहों ने राज किया. हर जुल्म, जबरन कन्वर्जन, धार्मिक आधार पर कर, धर्मस्थलों और प्रतीकों को ध्वस्त कर डालने जैसे कृत्यों के सामने हिन्दू झुका नहीं | 
छत्रपति शिवाजी से लेकर गुरू गोविंद सिंह तक सशस्त्र प्रतीकार का इतिहास आप देखेंगे, तो पाएंगे कि मराठों, सिखों, जाटों ने ताकतवर होने पर भी कहीं मुसलमानों पर जुल्म करने या उनका जबरन कन्वर्जन करने की कोशिश नहीं की |
हर दौर में धर्म द्रोही रहे. जिन्होंने कोशिश की कि हिन्दू अपने मार्ग से हट जाए. अपनी सहिष्णुता छोड़ दे. आजादी के बाद जब देश के पास विकल्प था, धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ था, तब भी भारत एक सर्व धर्म समावेशी राष्ट्र बना, तो यह हिन्दुओं के कारण ही संभव हुआ. क्या बंटवारे के समय, उस धार्मिक रक्तपात और आवेश के बीच हिन्दू ये मांग नहीं कर सकता था कि हम हिन्दू राष्ट्र हों. नहीं की. क्योंकि हम रामराज्य में यकीन करने वाले लोग हैं. ऐसा राज्य, जहां सबके विचारों के लिए स्थान हो. जी हां, जब दुनिया भेड़ों के लिए लड़ रही थी, हिन्दू धर्म वसुंधैव कुटुम्बकम की अवधारणा का प्रतिपादन कर रहा था | 
देश को बंटवारे के लिए जिम्मेदार लोगों और उनकी विचारधारा ने पांच दशक से ज्यादा इस देश पर राज किया. धर्म के आधार पर और फिर कभी समाज के अंदर बंटवारे के बीज बोए. हम हर साजिश से उबर आए, क्योंकि हम हिन्दू हैं. भगवा आतंकवाद जैसे शिगूफे उछालने वालों की परवाह किए बिना हम मां भारती को अपने हर आराध्य से पहले पूजते रहे हैं. जिहाद के नाम पर रक्तपात और क्रूसेड के नाम पर सशस्त्र प्रतिरोध के शोर के बीच पूरी दुनिया में रोशनी की इकलौती किरण अगर कहीं बची है, तो वह सिर्फ हिन्दुत्व है |

वीर सावरकर और महाराणा प्रताप

वीर सावरकर, जिन्हें दोहरे आजीवन कारावास की सजा हुई, पर कांग्रेस उन्हें वीर नहीं मानती. राजस्थान की कांग्रेस सरकार के अनुसार न स्वातंत्र्यवीर सावरकर ‘वीर’ थे और न महाराणा प्रताप ‘महान’। इसलिए उसने पाठ्य पुस्तकों में इन दोनों विभूतियों से जुड़े अध्यायों में से ‘वीर’ और ‘महान’ इन दोनों शब्दों को हटा दिया है।
मार्क्सवादी फोबिया से ग्रस्त कांग्रेसियों के लिए न तो वीर सावरकर ‘वीर’ हैं और न ही महाराणा प्रताप ‘महान’। हां, चित्तौड़गढ़ में 40,000 लोगों का नरसंहार कर अजमेर शरीफ पर सजदा करने वाला अकबर जरूर इनके लिए महान है। अकबर के समय में लिखे गए राजदरबारी फारसी वृत्तान्त ही इनके ऐतिहासिक स्रोत हैं। 
राजस्थान के लिखित और वहां पढ़े जाने वाले साहित्य को ये देखना तक उचित नहीं समझते, क्योंकि इनकी मानसिकता मार्क्स के इस कथन से आज भी ग्रस्त है कि भारत का कोई इतिहास ही नहीं है। भारत का इतिहास तो केवल आक्रांताओं का इतिहास है। ऐसी मानसिकता से पीड़ित लोग भारतीय इतिहास के हर गौरवशाली पक्ष को दरकिनार कर केवल भारत को कोसना जानते हैं। अपने आपको मार्क्सवादी इतिहासकार कहने और ‘जनता का इतिहास’ लिखने का दावा करने वाले इन लोगों के लिए केवल मुगलों की चाकरी करने वाले दरबारियों द्वारा लिखित घटनाक्रम ही इतिहास है और बाकी सब कहानियां-किस्से हैं।
 वास्तव में, इनका इतिहास लेखन विशुद्ध रूप से राजनीतिक लेखन है। तथ्यों को दबाना, उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना इनका घोषित लक्ष्य है। कहीं-कहीं तो ये दरबारी इतिहासकारों से भी आगे बढ़ जाते हैं। मलिक कफूर के सोमनाथ मंदिर पर किए गए आक्रमण को ये लोग मात्र ‘लूट’ मानते हैं। कोई इनसे पूछे कि यदि ऐसा था तो फिर बर्नी ने यह क्यों लिखा कि मूर्ति को तोड़कर बैलगाड़ी से अलाउद्दीन खिजली के पास भेजा गया। यह धर्म पर प्रहार नहीं था तो फिर क्या था? हल्दीघाटी के युद्ध में जब दोनों तरफ से राजपूत मर रहे थे तो उस समय अकबर के सेनापति ने यह कहा था कि मर तो काफिर ही रहे हैं।
 जिन्होंने मुगलों के आगे कभी सिर नही झुकाया, गुफाओं में रहे और घास की रोटी खाई, लेकिन इसके बावजूद अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी, वे महाराणा प्रताप इनके लिए महान नहीं हैं। तो फिर, अपने को जन इतिहासकार कहने वाले जरा यह भी बता दें कि महानता का पैमाना क्या होता है? एक आक्रांता जो नरसंहार कर अपना साम्राज्य बढ़ा रहा है, वह महान है अथवा वह वीर जो अपनी स्वतंत्रता और सम्मान को कायम रखने के लिए उससे लड़ रहा है? फिर इनके हिसाब से तो बाबर, अकबर, औरंगजेब, नादिरशाह, अब्दाली और अंग्रेज भी ‘महान’ थे।
वीर तो इनके लिए केवल वे कांग्रेसी थे, जिन्होंने सभागारों में बैठकर देश का बंटवारा करवाया। वे सावरकर भला इनके लिए वीर क्यों होंगे, जिन्होंने इंग्लैंड में क्रांति का बिगुल बजाया, जिन्होंने 1857 पर पुस्तक लिखकर क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी, जो इतने साहसी थे कि गिरफ्तार कर इंग्लैंड से भारत लाए जाते समय अंग्रेजी जहाज से समुद्र में कूदकर फ्रांस के तट तक तैरकर पहुंचे थे। 
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके ‘विशेषज्ञ’ इतिहासकारों को इस बात का अंदाजा भी है कि अंदमान की जेल किसे भेजा जाता था? कालेपानी की उस जेल में किस तरह की यातनाएं दी जाती थीं? कैसे प्रताड़ित किया जाता था? कितने ही महान क्रांतिकारियों ने वहां आत्महत्या की, कितने ही पागल हो गए। आठ वर्ष तक वीर सावरकर ने अंग्रेजों की इस नृशंसता को झेला। 
गहलोत को पता होना चाहिए कि कांग्रेसी तो जेल जाते ही अपने को राजनीतिक कैदी बताकर ‘बी क्लास’ की सुविधाएं मांगते थे। क्या किसी कांग्रेसी को कभी अंग्रेजों ने जेल में टाट के वस्त्र पहनाए, जिन्हें पहनकर लगातार बदन छिलता रहता था और शरीर से खून रिसता रहता था? यह वह जेल नहीं थी जिसमें कांग्रेसी नेताओं की तरह क्रांतिकारियों को खाना बनाने के लिए अपनी पसंद का रसोइया मिल सके। इस जेल में चक्की पिसवाई जाती थी, बागवानी नहीं कराई जाती थी। इस जेल की काल-कोठरियों में क्रांतिकारियों को दी गई यातनाओं की हकीकत बाहर तक नहीं आ पाती थी। 
वीर सावरकर ने कालेपानी की इस जेल में कैद और प्रताड़ित हो रहे सभी राजनीतिक कैदियों को माफ करके छोड़े जाने की बात कही थी और यहां तक कहा था कि ‘मुझे रिहा नहीं भी किया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता’। पर ये दस्तावेज कांग्रेसी और मार्क्सवादी इतिहासकारों को दिखाई नहीं देते। क्रांतिकारी तरह-तरह की गुप्त योजनाएं बनाते थे। कालेपानी में कैद वीर देश के लिए क्या कर सकते थे?  अंग्रेजों ने रिहा नहीं किया, बल्कि रत्नागिरि में लाकर नजरबंद कर दिया था और किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि चलाने पर भी पाबंदी थी।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1940 में अपनी गिरफ्तारी से पूर्व वीर सावरकर से रत्नागिरि में मिले थे। उस बैठक में क्या हुआ, यह किसी को मालूम नहीं। परन्तु 1941 में काबुल से बर्लिन जाते समय नेताजी ने अपने भारतीय साथियों को देने के लिए वहां पर इटली के तत्कालीन राजदूत क्वत्रोनी के पास एक पत्र छोड़ा था। दुर्भाग्यवश, यह पत्र भारत नहीं पहुंच पाया और 1948 में पेरिस में नेताजी के बड़े भाई शरत चंद्र बोस को दिया गया।
 इस पत्र में नेताजी ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी थी। नेताजी के अनुसार भारत में अंग्रेज सेना की जो नई भर्तियां कर रहे थे उनमें अपने विश्वस्त युवकों को भर्ती होने के लिए कहा गया था जिससे कि वे मौका मिलते ही अंग्रेजों का साथ छोड़कर नेताजी द्वारा भविष्य में बनाई जाने वाली सेना में शामिल हो सकें। आगे हुआ भी यही। मत भूलिए कि वीर सावरकर ने भी अंग्रेजी सेना में युवकों की भर्ती कराई थी।
 
1946 में आजाद हिंद फौज की ‘रिलीफ कमेटी’ को लिखे गए एक पत्र में आजाद हिंद फौज का एक सैनिक लिखता है, ‘‘सावरकर जी के आदेशानुसार मैं अंग्रेजों की सेना में शामिल हो गया था और जैसे ही मुझे मौका मिला वैसे ही मैं उनके निर्देशानुसार आजाद हिंद फौज में शामिल हो गया।’’ यह साक्ष्य बहुत कुछ कहता है, पर ऐसे साक्ष्यों को देखने की फुर्सत न तो राजस्थान के वर्तमान कांग्रेसी मुख्यमंत्री के पास है और न ही उनके ‘विशेषज्ञ’ इतिहासकारों के पास, क्योंकि उन्हें तो सिर्फ अपनी विचारधारा की ढफली बजानी है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास को दबाया नहीं जा सकता, इतिहास बोलता है और बहुत सशक्त ढंग से बोलता है। आज की युवा पीढ़ी अत्यंत ही जिज्ञासु है, वह सत्य जानना चाहती है।