You are being sold legally in the digital world

भाजपा ने 2009 का लोकसभा चुनाव लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा था। उस समय पार्टी ने आॅनलाइन माध्यमों पर भी विज्ञापन दिए थे। इसी दौरान कुछ हिंदी अखबारों में आश्चर्य जताते हुए खबर छपी कि आडवाणी जी के विज्ञापन पाकिस्तान के अखबारों की वेबसाइटों पर भी दिए जा रहे हैं! कुछ अखबारों ने उन अखबारों का स्क्रीनशॉट भी सबूत के तौर पर प्रकाशित किया। तमाम किस्म के कटाक्ष भी किए गए। लेकिन इन टिप्पणियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि डिजिटल मीडिया के बारे में खबर लिखने वालों तथा छापने वालों की समझ कितनी सीमित थी।

वास्तव में इस माध्यम पर दिखने वाले विज्ञापनों का तौर-तरीका पारंपरिक मीडिया से एकदम अलग है, क्योंकि इनके पीछे है ‘बिग डाटा’ की ताकत। अगर पाकिस्तान के डॉन अखबार की वेबसाइट पर आपको भाजपा का विज्ञापन दिखाई दिया तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह डॉन के हर पाठक को दिखाई देगा,  अगर यही विज्ञापन डॉन के मुद्रित संस्करण में दिया जाता तो सबको दिखाई देता। आॅनलाइन माध्यमों पर आप जो विज्ञापन देखते है, वे आपकी अपनी पृष्ठभूमि और गतिविधियों के लिहाज से दिखाए जाते हैं। उनका पाकिस्तान, अमेरिका, बांग्लादेश या किसी भी देश के आॅनलाइन ठिकाने से कोई संबंध नहीं है। अगर डॉन की बजाए मीडिया के ये साथी उस समय न्यूयॉर्क टाइम्स की वेबसाइट देख रहे होते तो वही विज्ञापन उन्हें वहां दिखाई देता। 

असल में इन विज्ञापनों को कहां दिखाया जाएगा, यह डायनेमिकली अर्थात उसी समय तय होता है। असली लक्ष्य आप यानी पाठक हैं। आप कहीं भी चले जाएं, विज्ञापन आपका पीछा करेगा। इसका दूसरा पहलू यह है कि डॉन की वेबसाइट पाकिस्तान में खबर पढ़ रहे लोगों को ठीक उसी जगह पर अपने इलाके से संबंधित विज्ञापन दिख रहा होगा और अगर कोई व्यक्ति ब्रिटेन में इस वेबसाइट को देखता होगा तो उसे ब्रिटेन से जुड़े विज्ञापन दिख रहे होंगे।

विज्ञापन दिखाने की इस प्रक्रिया में एक आधुनिक तकनीकी अवधारणा की भूमिका है, जिसका नाम है- बिग डाटा। आप और हम तकनीकी माध्यमों पर अपनी गतिविधियों के जरिए अपने बारे में इतना डाटा पैदा कर चुके होते हैं या साझा कर चुके होते हैं कि उसके आधार पर गूगल जैसी कंपनियां हमारी पसंद-नापसंद और जरूरतों का अंदाजा लगा सकती हैं और तब वे हमें ऐसे विज्ञापन दिखाती हैं जो हमारे अधिक अनुकूल होते हैं। ऐसी वस्तुएं जिन्हें खरीदने में हमारी दिलचस्पी अधिक होगी। फिर भले ही आप कहीं भी जाएं और कुछ भी करें, ये विज्ञापन आपका पीछा करते हैं। इंटरनेट पर कुछ सर्च करें, किसी वीडियो को देखें या फिर किसी समाचार पोर्टल पर ही क्यों न चले जाएं, आपको उन्हीं विषयों से जुड़े हुए विज्ञापन दिखाई देंगे।

मैं इन दिनों एक यूट्यूब आधारित चैनल का भी संचालन करता हूं। पिछले दिनों मुझे एक मित्र ने प्रशंसात्मक संदेश भेजा कि आपके चैनल पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन भी बहुत सटीक हैं। जाहिर है, उन्हें किसी ऐसे विषय से जुड़ा विज्ञापन देखने को मिला होगा जिस विषय पर वे कुछ खोजते रहे होंगे या उनकी आयु, पसंद, रोग आदि से जुड़ा हुआ कोई विज्ञापन दिख गया होगा। मैंने उन्हें ‘धन्यवाद’ मात्र कह दिया, क्योंकि उन्हें यह बात समझाना मुश्किल होता कि उस विज्ञापन का चयन मैंने नहीं किया था, बल्कि वह यूट्यूब की तरफ से स्वत: उन्हें दिखाया गया। दूसरे लोगों को उसकी जगह पर उनके अनुकूल विज्ञापन दिख रहा होगा।

इंटरनेट से जुड़े डिजिटल उपकरणों पर हम सबकी गतिविधियां अथाह डाटा उत्पन्न करती हैं। दुनिया भर में पैदा होने वाले ऐसे डाटा (सूचनाओं) को तकनीकी भाषा में ‘बिग डाटा’ के नाम से संबोधित किया जाता है। इसे इकट्ठा करने वाले वही संस्थान हैं, जिनके एप्स, वेबसाइट्स, सेवाएं, सॉफ्टवेयर या उपकरण आप इस्तेमाल करते हैं। इनमें से ज्यादातर नि:शुल्क हैं। लेकिन हम सबके बारे में जितनी जानकारी इन माध्यमों से इकट्ठी कर ली जाती है, वह अमूल्य है। ऐसी सेवाओं के लिए अक्सर कहा जाता है कि अगर आप किसी उत्पाद के लिए शुल्क का भुगतान नहीं करते हैं तो आप खुद उत्पाद हैं। मतलब यह कि आप सोचते हैं कि मैं फेसबुक का मुफ्त में इस्तेमाल करके कितना लाभ उठा चुका हूं, लेकिन फेसबुक की नजर में आप उसके ग्राहक नहीं हैं। उसके ग्राहक हैं विज्ञापनदाता, जिन्हें वह आपको बेचता है!

आप सोच रहे होंगे कि मुझे कोई कैसे बेच सकता है? यहां आपको शारीरिक रूप से बेचने की बात नहीं हो रही है। फेसबुक आप जैसे अनगिनत ग्राहकों की पसंद-नापसंद के आधार पर, अपने प्लेटफॉर्म पर, विज्ञापनदाताओं को आप तक पहुंचा रहा है। हो सकता है कि आप विज्ञापन में दिखाया गया उत्पाद खरीद लें। अगर आप फेसबुक पर नहीं होते तो वह विज्ञापनदाता आप तक कैसे पहुंचता? फेसबुक आप जैसे करोड़ों उपभोक्ताओं का प्रभारी बन बैठा है और आपको जैसे चाहे इस्तेमाल कर रहा है। इसे इस तरह समझिए। हमारे यहां चुनावों के दौरान कुछ लोग किसी मोहल्ले, जाति या मजहब-मत के प्रभारी की भूमिका में आ जाते हैं। आपका उनसे कोई संबंध नहीं, लेकिन आपके जरिए वे पैसा बना रहे होते हैं। उनके लिए आप ग्राहक नहीं हैं, उत्पाद हैं।

कैंब्रिज एनालिटिका प्रकरण में यह बात बड़ी बेशर्मी के साथ अनावृत हुई, जब अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने के लिए फेसबुक के डाटा का इस्तेमाल किया गया। यह आपके और हमारे जैसे उपभोक्ताओं का ‘बिग डाटा’ ही तो था। कैंब्रिज एनालिटिका डाटा का विश्लेषण करने वाली कंपनी थी, जिसने एक फेसबुक एप के जरिए करोड़ों अमेरिकी मतदाताओं का डाटा इकट्ठा किया। एप में लोगों से तमाम किस्म के सवाल पूछे गए थे ताकि उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सके। इस डाटा को अमेरिकी राजनैतिक दलों को बेचा गया और इसके आधार पर फेसबुक के जरिए लोगों को लक्षित विज्ञापन दिखाए गए। अगर मैं डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक हूं तो मुझे दूसरा विज्ञापन तथा रिपब्लिकन पार्टी का समर्थक हूं तो अलग। मेरी आयु, लिंग, नस्ल, शैक्षणिक योग्यता, पारिवारिक पृष्ठभूमि, इलाके और बहुत से दूसरे पहलुओं के आधार पर यह तय किया गया कि कौन से विज्ञापन किस व्यक्ति के मानस पर अधिक गहरा असर डालेंगे। कहा जाता है कि कैंब्रिज एनालिटिका के इसी डाटा संग्रहण और विश्लेषण की वजह से डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उनकी प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की रैलियों में ज्यादा भीड़ थी, जनमत सर्वेक्षण भी उन्हीं का पक्ष ले रहे थे, लेकिन नतीजा अपेक्षा से एकदम उल्टा रहा। वजह काफी हद तक बिग डाटा रहा, क्योंकि ट्रंप की पार्टी ने इस डाटा विश्लेषण कंपनी की सेवाएं ली थीं। 

इस नए दौर में ‘बिग डाटा’ में इतनी शक्ति है कि वह एक देश के राजनैतिक भविष्य का कायापलट कर सकता है। साथ ही, वह एक इनसान के तौर पर आपके निजी जीवन को भी प्रभावित कर सकता है। आप और हम जितना डाटा साझा कर चुके हैं, उसके आधार पर हमारा पूरा का पूरा वर्चुअल व्यक्तित्व तैयार किया जा सकता है। आपके बारे में जुटाई गई तमाम जानकारियों को इकट्ठा करके एक ऐसा आभासी व्यक्तित्व तैयार हो जाता है जो आपकी प्रतिकृति (कार्बन कॉपी) होती है, बस उसका शरीर नहीं होता। अब इसका व्यावसायिक, राजनैतिक या किसी भी दूसरे तरीके से इस्तेमाल करने के लिए ये संस्थान स्वतंत्र हैं। जब आप उनकी सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं तो एक अनुबंध को भी स्वीकार करते हैं, जिसमें प्राय: यह प्रावधान निहित रहता है कि वह संस्था आपका डाटा इकट्ठा करने, अपनी आवश्यकतानुसार उसका प्रयोग करने तथा उसे दूसरों को भी देने के लिए स्वतंत्र होगी। 

हो सकता है कि आप कहें कि मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जब आपको पता चलेगा कि आपके बारे में वे कितनी जानकारी जुटा चुके हैं तो शायद आपको फर्क पड़े 

डायलन करन (ऊ८’ंल्ल उ४११ंल्ल) नाम के एक पत्रकार ने गूगल के पास सहेजे गए अपने निजी डाटा को डाउनलोड करके देखा (डाउनलोड की यह सुविधा सबको उपलब्ध है), तो वे भौंचक्के रह गए। इस डाटा का आकार था- 5.5 गीगाबाइट्स यानी माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के करीब 30 लाख दस्तावेज के बराबर! याद रखिए, ये आपके ई-मेल या संदेश नहीं हैं। हम आपकी गतिविधियों के आधार पर आपके बारे में इकट्ठा की गई जानकारी की बात कर रहे हैं।


(लेखक सुप्रसिद्ध तकनीक विशेषज्ञ हैं)


साइबर अपराधियों की चालाकियों का तोड़

कोरोना वायरस जहां हमारी सेहत के लिए खतरा है वहीं वह डिजिटल दुनिया में भी एक नई किस्म का खतरा लाया है। लोगों के पास ऐसे ईमेल संदेशों की भरमार है जिनमें किसी न किसी तरह से कोरोना का डर पैदा करके या उसके प्रति सुरक्षा देने की बात करके उन्हें किसी घातक वेबसाइट पर पहुंचने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। 

जैसे यह कि कोविड का टीका लगवाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। जब वे क्लिक करते हैं तो साइबर अपराधियों द्वारा बनाई गई किसी वेबसाइट पर पहुंच जाते हैं। चूंकि वे इस तथ्य से अपरिचित हैं इसलिए वे वहां मौजूद फॉर्म में मांगी गई जानकारियां यह समझकर भर देते हैं कि ये किसी सरकारी विभाग ने मांगी हैं। असल में वही सूचनाएं आगे साइबर अपराधी उनके खिलाफ वित्तीय अपराधों के लिए इस्तेमाल करते हैं।

जब भी कोई बड़ी घटना होती है, साइबर अपराधी उसका फायदा उठाने के लिए तमाम किस्म की चालाकी और रचनात्मकता से काम लेते हैं। 

वैसे जरूरी नहीं है कि साइबर अपराध वेबसाइटों, इंटरनेट, ईमेल, रेंसमवेयर और मैलवेयर के जरिए ही हो। आजकल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे मैसेजिंग प्लेटफॉर्मों, मोबाइल फोन कॉल, एसएमएस और पेटीएम जैसे मोबाइल पेमेन्ट प्लेटफॉर्मों का भी अपराधियों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है।

एक परिवार के पास किसी अनजान युवक का फोन आया, जिसने कहा कि उनकी बेटी का एक्सीडेंट हो गया है और बेहोशी की हालत में उसे अस्पताल में भर्ती कराने के लिए पैसों की जरूरत है। जाहिर है, चिंतित मां-बाप ऐसे मामलों में तुरंत पेटीएम या दूसरे माध्यमों से पैसा भेज देंगे। यही हुआ और कुछ देर बाद पता चला कि बेटी तो सही-सलामत थी।

स्पैम, स्पाइवेयर, फिशिंग और स्पियर फिशिंग डिजिटल दुनिया में धोखाधड़ी के जाने-माने तरीके हैं। लेकिन कुछ ऐसे तरीके भी हैं जिनमें डिजिटल के साथ-साथ फिजिकल माध्यमों का भी इस्तेमाल किया जाता है, जैसे आपके क्रेडिट कार्ड की क्लोनिंग। इसी श्रेणी में हम विशिंग और स्मिशिंग को भी गिन सकते हैं जो दिखाते हैं कि साइबर अपराधी इतने चालाक होते जा रहे हैं कि ठगी के नए तौर-तरीके ईजाद करने लगे हैं।

फिशिंग के बारे में शायद आप जानते ही होंगे, लेकिन फिर भी इसे समझ लेना अच्छा है। आपके पास ऐसा ईमेल संदेश आता है जो किसी बैंक, कंपनी, विभाग आदि से आने वाले असली संदेश जैसा दिखता है। उसमें कुछ लिंक होते हैं जिन पर क्लिक करने पर आप किसी वेबसाइट पर पर पहुंच जाते हैं जो उसी संस्थान की वेबसाइट जैसी दिखती है। यहां जाने पर या तो कोई मैलवेयर डाउनलोड हो जाता है या फिर आपको लॉगिन करने या अपने क्रेडिट कार्ड, बैंक खाते या ऐसी ही कोई दूसरी गोपनीय सूचना देने के लिए कहा जाता है। जैसे ही आप वह सूचना डालते हैं, वह हैकरों के हाथ में पहुंच जाती है जो अब आपकी जानकारी के बिना उसका दुरुपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं।

विशिंग का मतलब है वॉयस फिशिंग यानी आवाज के जरिए की जाने वाली धोखाधड़ी। इसमें साइबर अपराधी आपको टेलीफोन करके बहलाते-फुसलाते हैं और आखिरकार आपके क्रेडिट कार्ड का ब्योरा, बैंक अकाउंट का ब्योरा, बैंक का पासवर्ड, ईमेल पासवर्ड या वन टाइम पासवर्ड (ओटीपी) आदि हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं। फिर इसका वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। 

एक मिसाल देखिए।  एक परिचित सज्जन के पास उनके बैंक से फोन आया-‘क्या आपने अभी-अभी अपने क्रेडिट कार्ड से पचास हजार रुपए की शॉपिंग की है?’ उन सज्जन ने हैरानी जताते हुए कहा-‘बिल्कुल नहीं!’ फोन करने वाले ने कहा-‘मैं बैंक से बोल रहा हूं और आपके क्रेडिट कार्ड से किए गए फर्जी लेन-देन को अभी रुकवाता हूं। मैं आपको एक ओटीपी भेज रहा हूं जिसे मैं दोबारा फोन करके आपसे पूछ लूंगा।’ कुछ ही सैकंड में सज्जन के फोन पर वन टाइम पासवर्ड आया और जिसे उन्होंने फोन करने वाले को तत्परता के साथ बता दिया। जैसे ही कॉल बंद हुआ, उनके मोबाइल फोन में संदेश आया कि आपके क्रेडिट कार्ड से अभी-अभी 25 हजार रुपए की शॉपिंग की गई है।

मतलब समझे आप? जो शख्स फोन करके उन्हें सावधान कर रहा था, असल में वही असली साइबर अपराधी था जो उनके क्रेडिट कार्ड का दुरुपयोग करते हुए कहीं पर भुगतान कर रहा था। वहां उससे ओटीपी मांगा गया जो उसने फोन करके इन सज्जन से मांग लिया। यह थी विशिंग। लैंडलाइन फोन और मोबाइल फोन के साथ-साथ इसके लिए व्हाट्सएप, गूगल डुओ, फेसबुक या स्काइप का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 

ईमेल और वेबसाइटों को लेकर हम लोग काफी सावधान हो चुके हैं लेकिन फोन को आज भी काफी हद तक सुरक्षित माना जाता है। यहां इसी धारणा का फायदा उठाया जाता है। इन कॉल्स में कभी आपको डराया जाता है, जैसे यह कि आपके आयकर रिटर्न की जांच चल रही है। कभी आपको लालच दिया जाता है, जैसे यह कि आपको मुफ्त में विदेश यात्रा और वहां पर एक हफ्ते तक रहने का आॅफर दिया जा रहा है। कभी-कभी आपकी रूमानी तबीयत का भी फायदा उठा लिया जाता है।

ज्यादातर मौकों पर फोन करने वाला किसी नकली, अस्थायी या चुराए गए मोबाइल नंबर का इस्तेमाल कर रहा होता है। हो सकता है कि वह विदेश से कॉल कर रहा हो, लेकिन आपको फोन की स्क्रीन पर भारतीय नंबर दिखाई दे। कभी-कभी तो फोन नंबर आपकी परिचित कंपनी का भी हो सकता है। इसके लिए कॉलर आइडी स्पूफिंग का इस्तेमाल किया जाता है। दूसरी तरफ कॉलर अपने प्रोफाइल चित्र के रूप में भी किसी संस्थान का ‘लोगो’ इस्तेमाल करके आपको बेवकूफ बना सकता है।

अब बात करते हैं स्मिशिंग की। मतलब है-एसएमएस फिशिंग या मोबाइल संदेश के जरिए की जाने वाली धोखाधड़ी। संदेश का मर्म यहां भी ज्यादातर मौकों पर वही होता है-डराना या लालच देना। संदेश में किसी वेबसाइट का लिंक दिया होता है या फिर किसी नंबर पर फोन करने के लिए कहा जाता है। 

एक उदाहरण देखिए। किसी के पास संदेश आया कि आपका बैंक खाता लॉक कर दिया गया है। अपने अकाउंट को अनलॉक करने के लिए इस वेब लिंक पर क्लिक कीजिए। इसी तरह से यह कि, आपका पासवर्ड निरस्त हो गया है। नया पासवर्ड बनाने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए। या कभी यह कि क्या यह सचमुच आपका चित्र है? आप जवाब देने के लिए आतुर हो जाते हैं कि हां भाई, यह मेरा ही चित्र है। और यह जवाब देना होता है एक वेबसाइट पर जाकर जहां आपसे दो-चार बातें और पूछ ली जाती हैं। इसके बाद की कहानी क्या होगी, बताने की जरूरत नहीं है।

तो इन हमलों से बचें कैसे? 

पहली बात-अपनी कुदरती समझ का इस्तेमाल कीजिए। सूचना, संवाद और संचार के माध्यमों पर किसी भी अनजान शख्स पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है। और जहां तक अपनी निजी सूचनाएं बताने की बात है तो वह अनजान ही क्यों, किसी परिचित को भी नहीं बतानी हैं। 

अगर आप मोबाइल और इंटरनेट के उपयोगकर्ता हैं तो सब पर संदेह करना सीखिए, फिर भले ही वह आपको डराता या लुभाता हो। बैंक से फोन आया है तो कह दीजिए कि आप फोन रखिए, मैं खुद ही बैंक को फोन करके देखता हूं कि क्या माजरा है। वेबलिंक भले ही ईमेल के जरिए आए या एसएमएस, व्हाट्सएप या फेसबुक के जरिए, आपको कभी किसी लिंक को क्लिक नहीं करना है। 

एक बात हमेशा के लिए याद रखिए-कोई भी बैंक, संस्थान, विभाग, संगठन, मंत्रालय आदि अगर वास्तविक है तो वे फोन, ईमेल, एसएमएस आदि के जरिए आपसे आपकी निजी जानकारी नहीं मांगेंगे। मांगेगा वही जो या तो कोई साइबर अपराधी है या फिर बेवकूफ!