How To Look At The World With Naked Eye

Either in support of him as “Godi” media or against him as “Anti nationalist”

You the we As “Humans” have a very big weakness...

You can be manipulated be it for good or bad...

You all do...so do I. But i learned to control it.

I want you to think for a moment...
How much time do you spend with yourself?  Like for Real?

Some of you think that being able to think like that at age of 18 building a successful Multi million dollar company is genius.

Let me tell you the secret “I don’t let anyone get to my head”

Some of you abuse and call bad shit all the time. It doesn’t make me feel bad.

The problem with all of you right now is that you’re listening and watching and reading so much that you don’t have time to think about what you do all day...

Everyone says “Become an independent thinker” have your own opinions right?

Then you tell me how the heck you would form your own opinions if you can’t look at the world with naked eye ? And observe things happening around you to form an opinion?

Do a exercise here...and you’ll fell how you’re in this deep shit.

You support Modi?
Write down 10 Reasons why on a piece of Paper.

You think he’s breaking the country? And a bad person?
Write down 10 reasons why...you think so...

And then look at the answer and honestly ask yourself “Is it really my own thinking?”

I promise 99.99% of you won’t do this. And the one who does is going to realize that what he think is his own thinking, is actually Not.

This is right now making me realize how far I’ve came with my level of thinking.

You are being sold legally in the digital world

भाजपा ने 2009 का लोकसभा चुनाव लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़ा था। उस समय पार्टी ने आॅनलाइन माध्यमों पर भी विज्ञापन दिए थे। इसी दौरान कुछ हिंदी अखबारों में आश्चर्य जताते हुए खबर छपी कि आडवाणी जी के विज्ञापन पाकिस्तान के अखबारों की वेबसाइटों पर भी दिए जा रहे हैं! कुछ अखबारों ने उन अखबारों का स्क्रीनशॉट भी सबूत के तौर पर प्रकाशित किया। तमाम किस्म के कटाक्ष भी किए गए। लेकिन इन टिप्पणियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि डिजिटल मीडिया के बारे में खबर लिखने वालों तथा छापने वालों की समझ कितनी सीमित थी।

वास्तव में इस माध्यम पर दिखने वाले विज्ञापनों का तौर-तरीका पारंपरिक मीडिया से एकदम अलग है, क्योंकि इनके पीछे है ‘बिग डाटा’ की ताकत। अगर पाकिस्तान के डॉन अखबार की वेबसाइट पर आपको भाजपा का विज्ञापन दिखाई दिया तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह डॉन के हर पाठक को दिखाई देगा,  अगर यही विज्ञापन डॉन के मुद्रित संस्करण में दिया जाता तो सबको दिखाई देता। आॅनलाइन माध्यमों पर आप जो विज्ञापन देखते है, वे आपकी अपनी पृष्ठभूमि और गतिविधियों के लिहाज से दिखाए जाते हैं। उनका पाकिस्तान, अमेरिका, बांग्लादेश या किसी भी देश के आॅनलाइन ठिकाने से कोई संबंध नहीं है। अगर डॉन की बजाए मीडिया के ये साथी उस समय न्यूयॉर्क टाइम्स की वेबसाइट देख रहे होते तो वही विज्ञापन उन्हें वहां दिखाई देता। 

असल में इन विज्ञापनों को कहां दिखाया जाएगा, यह डायनेमिकली अर्थात उसी समय तय होता है। असली लक्ष्य आप यानी पाठक हैं। आप कहीं भी चले जाएं, विज्ञापन आपका पीछा करेगा। इसका दूसरा पहलू यह है कि डॉन की वेबसाइट पाकिस्तान में खबर पढ़ रहे लोगों को ठीक उसी जगह पर अपने इलाके से संबंधित विज्ञापन दिख रहा होगा और अगर कोई व्यक्ति ब्रिटेन में इस वेबसाइट को देखता होगा तो उसे ब्रिटेन से जुड़े विज्ञापन दिख रहे होंगे।

विज्ञापन दिखाने की इस प्रक्रिया में एक आधुनिक तकनीकी अवधारणा की भूमिका है, जिसका नाम है- बिग डाटा। आप और हम तकनीकी माध्यमों पर अपनी गतिविधियों के जरिए अपने बारे में इतना डाटा पैदा कर चुके होते हैं या साझा कर चुके होते हैं कि उसके आधार पर गूगल जैसी कंपनियां हमारी पसंद-नापसंद और जरूरतों का अंदाजा लगा सकती हैं और तब वे हमें ऐसे विज्ञापन दिखाती हैं जो हमारे अधिक अनुकूल होते हैं। ऐसी वस्तुएं जिन्हें खरीदने में हमारी दिलचस्पी अधिक होगी। फिर भले ही आप कहीं भी जाएं और कुछ भी करें, ये विज्ञापन आपका पीछा करते हैं। इंटरनेट पर कुछ सर्च करें, किसी वीडियो को देखें या फिर किसी समाचार पोर्टल पर ही क्यों न चले जाएं, आपको उन्हीं विषयों से जुड़े हुए विज्ञापन दिखाई देंगे।

मैं इन दिनों एक यूट्यूब आधारित चैनल का भी संचालन करता हूं। पिछले दिनों मुझे एक मित्र ने प्रशंसात्मक संदेश भेजा कि आपके चैनल पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन भी बहुत सटीक हैं। जाहिर है, उन्हें किसी ऐसे विषय से जुड़ा विज्ञापन देखने को मिला होगा जिस विषय पर वे कुछ खोजते रहे होंगे या उनकी आयु, पसंद, रोग आदि से जुड़ा हुआ कोई विज्ञापन दिख गया होगा। मैंने उन्हें ‘धन्यवाद’ मात्र कह दिया, क्योंकि उन्हें यह बात समझाना मुश्किल होता कि उस विज्ञापन का चयन मैंने नहीं किया था, बल्कि वह यूट्यूब की तरफ से स्वत: उन्हें दिखाया गया। दूसरे लोगों को उसकी जगह पर उनके अनुकूल विज्ञापन दिख रहा होगा।

इंटरनेट से जुड़े डिजिटल उपकरणों पर हम सबकी गतिविधियां अथाह डाटा उत्पन्न करती हैं। दुनिया भर में पैदा होने वाले ऐसे डाटा (सूचनाओं) को तकनीकी भाषा में ‘बिग डाटा’ के नाम से संबोधित किया जाता है। इसे इकट्ठा करने वाले वही संस्थान हैं, जिनके एप्स, वेबसाइट्स, सेवाएं, सॉफ्टवेयर या उपकरण आप इस्तेमाल करते हैं। इनमें से ज्यादातर नि:शुल्क हैं। लेकिन हम सबके बारे में जितनी जानकारी इन माध्यमों से इकट्ठी कर ली जाती है, वह अमूल्य है। ऐसी सेवाओं के लिए अक्सर कहा जाता है कि अगर आप किसी उत्पाद के लिए शुल्क का भुगतान नहीं करते हैं तो आप खुद उत्पाद हैं। मतलब यह कि आप सोचते हैं कि मैं फेसबुक का मुफ्त में इस्तेमाल करके कितना लाभ उठा चुका हूं, लेकिन फेसबुक की नजर में आप उसके ग्राहक नहीं हैं। उसके ग्राहक हैं विज्ञापनदाता, जिन्हें वह आपको बेचता है!

आप सोच रहे होंगे कि मुझे कोई कैसे बेच सकता है? यहां आपको शारीरिक रूप से बेचने की बात नहीं हो रही है। फेसबुक आप जैसे अनगिनत ग्राहकों की पसंद-नापसंद के आधार पर, अपने प्लेटफॉर्म पर, विज्ञापनदाताओं को आप तक पहुंचा रहा है। हो सकता है कि आप विज्ञापन में दिखाया गया उत्पाद खरीद लें। अगर आप फेसबुक पर नहीं होते तो वह विज्ञापनदाता आप तक कैसे पहुंचता? फेसबुक आप जैसे करोड़ों उपभोक्ताओं का प्रभारी बन बैठा है और आपको जैसे चाहे इस्तेमाल कर रहा है। इसे इस तरह समझिए। हमारे यहां चुनावों के दौरान कुछ लोग किसी मोहल्ले, जाति या मजहब-मत के प्रभारी की भूमिका में आ जाते हैं। आपका उनसे कोई संबंध नहीं, लेकिन आपके जरिए वे पैसा बना रहे होते हैं। उनके लिए आप ग्राहक नहीं हैं, उत्पाद हैं।

कैंब्रिज एनालिटिका प्रकरण में यह बात बड़ी बेशर्मी के साथ अनावृत हुई, जब अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने के लिए फेसबुक के डाटा का इस्तेमाल किया गया। यह आपके और हमारे जैसे उपभोक्ताओं का ‘बिग डाटा’ ही तो था। कैंब्रिज एनालिटिका डाटा का विश्लेषण करने वाली कंपनी थी, जिसने एक फेसबुक एप के जरिए करोड़ों अमेरिकी मतदाताओं का डाटा इकट्ठा किया। एप में लोगों से तमाम किस्म के सवाल पूछे गए थे ताकि उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सके। इस डाटा को अमेरिकी राजनैतिक दलों को बेचा गया और इसके आधार पर फेसबुक के जरिए लोगों को लक्षित विज्ञापन दिखाए गए। अगर मैं डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक हूं तो मुझे दूसरा विज्ञापन तथा रिपब्लिकन पार्टी का समर्थक हूं तो अलग। मेरी आयु, लिंग, नस्ल, शैक्षणिक योग्यता, पारिवारिक पृष्ठभूमि, इलाके और बहुत से दूसरे पहलुओं के आधार पर यह तय किया गया कि कौन से विज्ञापन किस व्यक्ति के मानस पर अधिक गहरा असर डालेंगे। कहा जाता है कि कैंब्रिज एनालिटिका के इसी डाटा संग्रहण और विश्लेषण की वजह से डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उनकी प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की रैलियों में ज्यादा भीड़ थी, जनमत सर्वेक्षण भी उन्हीं का पक्ष ले रहे थे, लेकिन नतीजा अपेक्षा से एकदम उल्टा रहा। वजह काफी हद तक बिग डाटा रहा, क्योंकि ट्रंप की पार्टी ने इस डाटा विश्लेषण कंपनी की सेवाएं ली थीं। 

इस नए दौर में ‘बिग डाटा’ में इतनी शक्ति है कि वह एक देश के राजनैतिक भविष्य का कायापलट कर सकता है। साथ ही, वह एक इनसान के तौर पर आपके निजी जीवन को भी प्रभावित कर सकता है। आप और हम जितना डाटा साझा कर चुके हैं, उसके आधार पर हमारा पूरा का पूरा वर्चुअल व्यक्तित्व तैयार किया जा सकता है। आपके बारे में जुटाई गई तमाम जानकारियों को इकट्ठा करके एक ऐसा आभासी व्यक्तित्व तैयार हो जाता है जो आपकी प्रतिकृति (कार्बन कॉपी) होती है, बस उसका शरीर नहीं होता। अब इसका व्यावसायिक, राजनैतिक या किसी भी दूसरे तरीके से इस्तेमाल करने के लिए ये संस्थान स्वतंत्र हैं। जब आप उनकी सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं तो एक अनुबंध को भी स्वीकार करते हैं, जिसमें प्राय: यह प्रावधान निहित रहता है कि वह संस्था आपका डाटा इकट्ठा करने, अपनी आवश्यकतानुसार उसका प्रयोग करने तथा उसे दूसरों को भी देने के लिए स्वतंत्र होगी। 

हो सकता है कि आप कहें कि मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जब आपको पता चलेगा कि आपके बारे में वे कितनी जानकारी जुटा चुके हैं तो शायद आपको फर्क पड़े 

डायलन करन (ऊ८’ंल्ल उ४११ंल्ल) नाम के एक पत्रकार ने गूगल के पास सहेजे गए अपने निजी डाटा को डाउनलोड करके देखा (डाउनलोड की यह सुविधा सबको उपलब्ध है), तो वे भौंचक्के रह गए। इस डाटा का आकार था- 5.5 गीगाबाइट्स यानी माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के करीब 30 लाख दस्तावेज के बराबर! याद रखिए, ये आपके ई-मेल या संदेश नहीं हैं। हम आपकी गतिविधियों के आधार पर आपके बारे में इकट्ठा की गई जानकारी की बात कर रहे हैं।


(लेखक सुप्रसिद्ध तकनीक विशेषज्ञ हैं)


साइबर अपराधियों की चालाकियों का तोड़

कोरोना वायरस जहां हमारी सेहत के लिए खतरा है वहीं वह डिजिटल दुनिया में भी एक नई किस्म का खतरा लाया है। लोगों के पास ऐसे ईमेल संदेशों की भरमार है जिनमें किसी न किसी तरह से कोरोना का डर पैदा करके या उसके प्रति सुरक्षा देने की बात करके उन्हें किसी घातक वेबसाइट पर पहुंचने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। 

जैसे यह कि कोविड का टीका लगवाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। जब वे क्लिक करते हैं तो साइबर अपराधियों द्वारा बनाई गई किसी वेबसाइट पर पहुंच जाते हैं। चूंकि वे इस तथ्य से अपरिचित हैं इसलिए वे वहां मौजूद फॉर्म में मांगी गई जानकारियां यह समझकर भर देते हैं कि ये किसी सरकारी विभाग ने मांगी हैं। असल में वही सूचनाएं आगे साइबर अपराधी उनके खिलाफ वित्तीय अपराधों के लिए इस्तेमाल करते हैं।

जब भी कोई बड़ी घटना होती है, साइबर अपराधी उसका फायदा उठाने के लिए तमाम किस्म की चालाकी और रचनात्मकता से काम लेते हैं। 

वैसे जरूरी नहीं है कि साइबर अपराध वेबसाइटों, इंटरनेट, ईमेल, रेंसमवेयर और मैलवेयर के जरिए ही हो। आजकल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे मैसेजिंग प्लेटफॉर्मों, मोबाइल फोन कॉल, एसएमएस और पेटीएम जैसे मोबाइल पेमेन्ट प्लेटफॉर्मों का भी अपराधियों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है।

एक परिवार के पास किसी अनजान युवक का फोन आया, जिसने कहा कि उनकी बेटी का एक्सीडेंट हो गया है और बेहोशी की हालत में उसे अस्पताल में भर्ती कराने के लिए पैसों की जरूरत है। जाहिर है, चिंतित मां-बाप ऐसे मामलों में तुरंत पेटीएम या दूसरे माध्यमों से पैसा भेज देंगे। यही हुआ और कुछ देर बाद पता चला कि बेटी तो सही-सलामत थी।

स्पैम, स्पाइवेयर, फिशिंग और स्पियर फिशिंग डिजिटल दुनिया में धोखाधड़ी के जाने-माने तरीके हैं। लेकिन कुछ ऐसे तरीके भी हैं जिनमें डिजिटल के साथ-साथ फिजिकल माध्यमों का भी इस्तेमाल किया जाता है, जैसे आपके क्रेडिट कार्ड की क्लोनिंग। इसी श्रेणी में हम विशिंग और स्मिशिंग को भी गिन सकते हैं जो दिखाते हैं कि साइबर अपराधी इतने चालाक होते जा रहे हैं कि ठगी के नए तौर-तरीके ईजाद करने लगे हैं।

फिशिंग के बारे में शायद आप जानते ही होंगे, लेकिन फिर भी इसे समझ लेना अच्छा है। आपके पास ऐसा ईमेल संदेश आता है जो किसी बैंक, कंपनी, विभाग आदि से आने वाले असली संदेश जैसा दिखता है। उसमें कुछ लिंक होते हैं जिन पर क्लिक करने पर आप किसी वेबसाइट पर पर पहुंच जाते हैं जो उसी संस्थान की वेबसाइट जैसी दिखती है। यहां जाने पर या तो कोई मैलवेयर डाउनलोड हो जाता है या फिर आपको लॉगिन करने या अपने क्रेडिट कार्ड, बैंक खाते या ऐसी ही कोई दूसरी गोपनीय सूचना देने के लिए कहा जाता है। जैसे ही आप वह सूचना डालते हैं, वह हैकरों के हाथ में पहुंच जाती है जो अब आपकी जानकारी के बिना उसका दुरुपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं।

विशिंग का मतलब है वॉयस फिशिंग यानी आवाज के जरिए की जाने वाली धोखाधड़ी। इसमें साइबर अपराधी आपको टेलीफोन करके बहलाते-फुसलाते हैं और आखिरकार आपके क्रेडिट कार्ड का ब्योरा, बैंक अकाउंट का ब्योरा, बैंक का पासवर्ड, ईमेल पासवर्ड या वन टाइम पासवर्ड (ओटीपी) आदि हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं। फिर इसका वे जैसे चाहें इस्तेमाल करें। 

एक मिसाल देखिए।  एक परिचित सज्जन के पास उनके बैंक से फोन आया-‘क्या आपने अभी-अभी अपने क्रेडिट कार्ड से पचास हजार रुपए की शॉपिंग की है?’ उन सज्जन ने हैरानी जताते हुए कहा-‘बिल्कुल नहीं!’ फोन करने वाले ने कहा-‘मैं बैंक से बोल रहा हूं और आपके क्रेडिट कार्ड से किए गए फर्जी लेन-देन को अभी रुकवाता हूं। मैं आपको एक ओटीपी भेज रहा हूं जिसे मैं दोबारा फोन करके आपसे पूछ लूंगा।’ कुछ ही सैकंड में सज्जन के फोन पर वन टाइम पासवर्ड आया और जिसे उन्होंने फोन करने वाले को तत्परता के साथ बता दिया। जैसे ही कॉल बंद हुआ, उनके मोबाइल फोन में संदेश आया कि आपके क्रेडिट कार्ड से अभी-अभी 25 हजार रुपए की शॉपिंग की गई है।

मतलब समझे आप? जो शख्स फोन करके उन्हें सावधान कर रहा था, असल में वही असली साइबर अपराधी था जो उनके क्रेडिट कार्ड का दुरुपयोग करते हुए कहीं पर भुगतान कर रहा था। वहां उससे ओटीपी मांगा गया जो उसने फोन करके इन सज्जन से मांग लिया। यह थी विशिंग। लैंडलाइन फोन और मोबाइल फोन के साथ-साथ इसके लिए व्हाट्सएप, गूगल डुओ, फेसबुक या स्काइप का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। 

ईमेल और वेबसाइटों को लेकर हम लोग काफी सावधान हो चुके हैं लेकिन फोन को आज भी काफी हद तक सुरक्षित माना जाता है। यहां इसी धारणा का फायदा उठाया जाता है। इन कॉल्स में कभी आपको डराया जाता है, जैसे यह कि आपके आयकर रिटर्न की जांच चल रही है। कभी आपको लालच दिया जाता है, जैसे यह कि आपको मुफ्त में विदेश यात्रा और वहां पर एक हफ्ते तक रहने का आॅफर दिया जा रहा है। कभी-कभी आपकी रूमानी तबीयत का भी फायदा उठा लिया जाता है।

ज्यादातर मौकों पर फोन करने वाला किसी नकली, अस्थायी या चुराए गए मोबाइल नंबर का इस्तेमाल कर रहा होता है। हो सकता है कि वह विदेश से कॉल कर रहा हो, लेकिन आपको फोन की स्क्रीन पर भारतीय नंबर दिखाई दे। कभी-कभी तो फोन नंबर आपकी परिचित कंपनी का भी हो सकता है। इसके लिए कॉलर आइडी स्पूफिंग का इस्तेमाल किया जाता है। दूसरी तरफ कॉलर अपने प्रोफाइल चित्र के रूप में भी किसी संस्थान का ‘लोगो’ इस्तेमाल करके आपको बेवकूफ बना सकता है।

अब बात करते हैं स्मिशिंग की। मतलब है-एसएमएस फिशिंग या मोबाइल संदेश के जरिए की जाने वाली धोखाधड़ी। संदेश का मर्म यहां भी ज्यादातर मौकों पर वही होता है-डराना या लालच देना। संदेश में किसी वेबसाइट का लिंक दिया होता है या फिर किसी नंबर पर फोन करने के लिए कहा जाता है। 

एक उदाहरण देखिए। किसी के पास संदेश आया कि आपका बैंक खाता लॉक कर दिया गया है। अपने अकाउंट को अनलॉक करने के लिए इस वेब लिंक पर क्लिक कीजिए। इसी तरह से यह कि, आपका पासवर्ड निरस्त हो गया है। नया पासवर्ड बनाने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए। या कभी यह कि क्या यह सचमुच आपका चित्र है? आप जवाब देने के लिए आतुर हो जाते हैं कि हां भाई, यह मेरा ही चित्र है। और यह जवाब देना होता है एक वेबसाइट पर जाकर जहां आपसे दो-चार बातें और पूछ ली जाती हैं। इसके बाद की कहानी क्या होगी, बताने की जरूरत नहीं है।

तो इन हमलों से बचें कैसे? 

पहली बात-अपनी कुदरती समझ का इस्तेमाल कीजिए। सूचना, संवाद और संचार के माध्यमों पर किसी भी अनजान शख्स पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है। और जहां तक अपनी निजी सूचनाएं बताने की बात है तो वह अनजान ही क्यों, किसी परिचित को भी नहीं बतानी हैं। 

अगर आप मोबाइल और इंटरनेट के उपयोगकर्ता हैं तो सब पर संदेह करना सीखिए, फिर भले ही वह आपको डराता या लुभाता हो। बैंक से फोन आया है तो कह दीजिए कि आप फोन रखिए, मैं खुद ही बैंक को फोन करके देखता हूं कि क्या माजरा है। वेबलिंक भले ही ईमेल के जरिए आए या एसएमएस, व्हाट्सएप या फेसबुक के जरिए, आपको कभी किसी लिंक को क्लिक नहीं करना है। 

एक बात हमेशा के लिए याद रखिए-कोई भी बैंक, संस्थान, विभाग, संगठन, मंत्रालय आदि अगर वास्तविक है तो वे फोन, ईमेल, एसएमएस आदि के जरिए आपसे आपकी निजी जानकारी नहीं मांगेंगे। मांगेगा वही जो या तो कोई साइबर अपराधी है या फिर बेवकूफ!


Tax for Working from Home?

 

A few days back, Deutsche Bank’s research desk published a report titled“What we must do to Rebuild”.

 

The report charts out possible measures governments across the world ought to consider while rebuilding the global economy and it prescribes solutions that could offset the devastating effects of the pandemic.

However, there was one interesting proposal that caught everybody’s attention.

As the author of the report notes

For years we have needed a tax on remote workers — Covid has just made it obvious. Quite simply, our economic system is not set up to cope with people who can disconnect themselves from face-to-face society. Those who can WFH receive direct and indirect financial benefits and they should be taxed in order to smooth the transition process for those who have been suddenly displaced.

He further goes on to add that "work from home" is here to stay and so it’s imperative to tax the privileged folk and repatriate their income to those who do not have the luxury of working from home. A “Privilege Tax”, so to speak.

 

Also, according to the report, a tax drive such as this could fetch the US government $48 billion and help provide 29 million low wage workers with a $1,500 annual paycheck. And while there are a host of logistical issues in undertaking such a massive endeavour, we thought we could take a closer look at the proposal itself.

The whole argument seems to be centered on two tacit assumptions.

a. Work from home is a privilege

b. Such a privilege needs to be taxed

So let’s look at the first assumption. Is work from home, a privilege?

Here’s what research tells you. College-educated white-collar employees are more likely to work from home considering their jobs don’t require a lot of face-face interaction. Take for instance, India’s burgeoning tech industry.

If you’re an IT worker, all you need is a laptop and an internet connection and you’re good to go.

But if you’re a blue-collar worker, say, a store clerk or a waiter or a factory employee you simply can’t afford to work from home.

And this drives a certain wedge in your savings profile. For instance, an average working professional in India can save ~Rs. 5000 a month while working from home. And they can have another 90 minutes shaved off their commute time and do something productive in the meantime.

So the argument goes that the privileged folks are reaping the added benefits of working from home while the rest have to man the frontlines, take added risks and keep exposing themselves to the virus in a bid to keep the economy up and running. If this isn’t a stark reminder of privilege, what is, right?

But then there is a counterargument. Working from home has its downsides too. The added mental stress of having to work alongside caring for children, investments in work infrastructure, the difficulties involved in drawing boundaries between work and personal life. There are all kinds of costs you have to consider. And the positive externalities of working from homeLess pollution, less congestion, fewer accidents and perhaps even productivity gains. The list goes on. So what happens when you offset these costs against the added benefits of working from home? The author of the report dismisses the argument suggesting that the benefits far outweigh the costs but if you ask people working from home, they might have a different opinion.

But then, the Deutsche bank author has another contention. He adds

The sudden shift to WFH means that, for the first time in history, a big chunk of people have disconnected themselves from the face-to-face world yet are still leading a full economic life. That means remote workers are contributing less to the infrastructure of the economy whilst still receiving its benefits. That is a big problem for the economy as it has taken decades and centuries to build up the wider business and economic infrastructure that supports face-to-face working. If a great swathe of assets lie redundant, the economic malaise will be extended.

So let’s tax the extra savings and mobilize additional resources.

But the application of this thesis seems arbitrary at best. Should we then start classifying the working-class population based on other considerations that could be deemed privileges?

What about an individual working a sales job vs an IT employee mostly spending his/her time in the office? As a salesperson, you’re always travelling and using and paying for the economic infrastructure that supports face to face working. You’re on the frontlines all the time. Should the government then tax the IT employee even if he/she is working from the office because of their apparent privilege? Should a part of their income be repatriated to the sales professional because the sales folk assume all the risks?

It’s a slippery slope this. And it could open a pandora’s box of nasty possibilities.

Also, as another tax expert wrote"Remote work has both advantages and disadvantages, but it certainly isn’t hurting the federal government. It is not an undesirable activity to be curtailed by prohibitive taxation. The proposed remote work tax doesn’t fix a problem; it doesn’t even identify a problem worth fixing. It simply enacts a penalty on those able to work remotely."

 

Even others contest that Deutsche Bank has an ulterior motive here. The bank is heavily invested in commercial real estate and a tax on people working from home bodes well for the company. Nonetheless, the whole proposal seems to be dividing opinion across the board. So i’ll wrap up this story by posing the question to you?

Should WFH be taxed?

Or is the entire thesis bunkum?

Let us know your thoughts in comments -

Until next time...

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The Scaling Problem of Vaccine

 

A couple of weeks back, the CEO of Serum Institute of India announced that the launch of a new Covid-19 vaccine Covovax developed jointly in association with Novavax is likely to be delayed to September in the country.

This came against the backdrop of a US Ban on exports of key raw materials required to manufacture the vaccine. And if the export controls aren’t lifted soon enough, it could upend the global war on Covid altogether.

Large-scale vaccine production is no walk in the park. If you’re manufacturing vaccines, you have to let cells replicate in a cell culture — Beefing them up each day in large sterile plastic bags.

And while you could bypass the use of bags by resorting to a different production method, it can cause unnecessary delays in the process. For instance, Novavax (in association with Serum Institute of India) is hoping to produce the next billion vaccines using these very same methods. And an acute shortage of bioreactor bags is threatening to scuttle this global effort.

Also, once the cells have multiplied in numbers, you’ll have a soup that includes the actual vaccine and gunk that you don’t need. At this point, you have to carefully filter the good stuff in a sterile environment. Unfortunately, the filters (required to achieve this delicate objective) are also in short supply.

 

The process requires adequate supplies of a wide variety of specialized inputs — everything from expensive pieces of capital equipment like bioreactors and filtration pumps to single-use bioreactor bags, adjuvants and lipids — from a range of suppliers.

Bulk drug production often requires recruiting partners further along the chain to complete the final “fill and finish” step of adding other ingredients and putting the correct dosage into tiny containers suitable for shipping to health care workers. And, of course, the health care workers require syringes, needles, and personal protective equipment to administer the doses.

One missing input or piece of equipment could grind the entire supply chain to a halt — Excerpts from a report on the Peterson Institute for International Economics.

And as such, when the US decided to ban the export of key raw materials, it was evident that the move was going to have a detrimental impact on the crusade against Covid.

But why is the US stopping down to such underhanded tactics?

Well, technically they're prioritizing their own self-interest. They’ll argue that they have to vaccinate ~300 million US citizens in the shortest period possible. And so it’s imperative they stock these key raw materials for domestic manufacturers. In fact, in a bid to achieve this objective the Biden government invoked the Defence Production Act for the umpteenth time recently. This law confers powers on the president who can then allocate “materials, services, and facilities” and award contracts that take priority over any other contract to “promote the national defense.” Meaning the president can allocate resources to aid this war effort against Covid. He can impose export control and prevent manufacturers from shipping key components to foreign destinations.

On most occasions, the free market decides the allocation of resources based on incentives. But in this particular case, the government dictates where resources have to be expended. And while it does help manufacturers scale their production capacity, it does have unintended consequences — Not just for the likes of Serum Institute of India, but even for US citizens.

For instance, as this article from NPR notes — "On Feb. 11, Pfizer sent a letter to hospitals alerting them of “short-term supply interruptions due to increased vaccine production” affecting cleocin phosphate, an antibiotic; Depo-Medrol, a steroid; as well as depo-testosterone and testosterone cypionate, which are used to treat certain hormonal problems and some breast cancers. “These temporary interruptions are solely a result of the prioritization of vaccine production and are not due to any manufacturing delays or issues,” the letter says."

 

But as we already noted, the most profound impact will likely be seen on the frontlines of vaccination efforts in countries like India. If SII cannot ramp up production, India and many other countries will have to suffer the consequences. And it won’t be a pleasant sight especially since we are already seeing the proliferation of the second wave. So hopefully, Indian and global authorities can intervene and nudge US administrators to relax restrictions.

Until then…

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नवरात्रों का महत्त्व

भारतीय अवधारणा में हिरण्यगर्भ जिसे पाश्चात्य विज्ञान बिग बैंग के रूप में देखता है, से अस्तित्व में आए इस दृष्यादृष्य जगत के सभी प्रपंच चाहे वह जड़ हों या चेतन, सभी निर्विवाद रूप से शक्ति के ही परिणाम हैं। हम सभी का श्वांस-प्रश्वांस प्रणाली, रक्त संचार, हृदय की धड़कन, नाड़ी गति, शरीर संचालन, सोचना समझना, सभी कुछ शक्ति के द्वारा ही संभव होता है। जो कुछ भी पदार्थ के रूप में हैं, उनके साथ-साथ हम सभी पंचतत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा से बने हैं। उदाहरण के लिए जल में द्रव यानी गीला करने की शक्ति है, अग्नि में दाह यानी जलाने की शक्ति है, वायु में स्पर्श की शक्ति है, मिट्टी में गंध की शक्ति है और आकाश में शब्द की शक्ति है। प्रकाश और ध्वनि में तरंग की शक्ति है। सृष्टि में सृजन की शक्ति है और प्रलय में विसर्जन की शक्ति है। प्राण में जीवन शक्ति है।

आईंस्टीन का इनर्जी-मैटर समीकरण ई = एमसी2 के अनुसार भी संसार के सभी द्रव्य ऊर्जा की संहति के ही परिणाम हैं। यहाँ तक कि पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन भी ऊर्जा की विभिन्न गत्यात्मकता से ही संभव होता है। इन सभी क्रियाओं से ऊर्जा न तो खर्च होती है और न ही उसका ह्रास होता है, वह सदैव विद्यमान रहती है। यह सनातन है, यह अक्षत है। इसे न तो पैदा किया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है। हमें जो जड़ प्रतीत होता है, वह भी ऊर्जा के प्रभाव से अपने नाभी की परिधि में विविध वेग से गतिमान है। इन अणुओं का स्वरूप भी प्लाज्मा, क्वाट्र्ज, पार्टिकल्स यानी कणों के गतिक्रम के अनुरूप ही अस्तित्व में आते हैं। यानी गत्यात्मकताओं के इन्हीं आधारों पर ही अणु-परमाणु आदि सूक्ष्म तत्व आपसी संयोजन करके सूर्य, चंद्र तथा पृथिवी जैसे विशाल पिंडों में परिवर्तित होकर आकाश में विचरण करने लगते हैं। ब्रह्मांड में सभी कुछ गतिमान है, स्थिर कुछ भी नहीं। अनंत ब्रह्मांडों वाली ये श्रृंखलाएं प्रकृति के प्रगट स्वरूप के चार प्रतिशत के क्षेत्र में हैं, 76 प्रतिशत क्षेत्र डार्क इनर्जी का है और 21 प्रतिशत क्षेत्र डार्क मैटर का है।
इसे ऋग्वेद में कहा गया है आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यण्च। हिरण्यय़ेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन।। यह नक्षत्रों से परिपूर्ण ब्रह्मांड की ये अनंत श्रृंखलाएं किसी बल विशेष के प्रभाव से ही निरंतर गतिशील बनी हुई हैं। यह सर्वविदित है कि किसी भी प्रकार की गतिशीलता के लिए एक स्थिर आधार की आवश्यकता होती है। हम यदि चल पाते हैं तो इसलिए कि हमारी तुलना में पृथिवी स्थिर है। इसी प्रकार सृष्टि की गतिशीलता जिस आधार पर क्रियाशील है, उसे ही ऋषियों ने निष्कलंक, निष्क्रिय, शांत, निरंजन, निगूढ़ कहा है। इस अपरिमेय निरंजन निगूढ़ सत्ता में चेतना के प्रभाव से कामना का भाव जागृत होता है, तब उसे साकार करने के लिए मातृत्व गुणों से परिपूर्ण चिन्मयी शक्ति का प्राकट्य होता है। इस तरह आदि शक्ति के तीन स्वरूपों ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के उपक्रमों से प्रकृति के सत्व, रज और तम तीन गुणों की उत्पत्ति होती है। इन्हें ही उनकी आभा के अनुसार श्वेत, रक्तिम और कृष्ण कहा गया है।

अतिशय शुद्धता की स्थिति में कोई भी निर्माण नहीं हो सकता। जैसे कि 24 कैरेट शुद्ध सोने से आभूषण नहीं बनता, इसके लिए उसमें तांबा या चांदी का मिश्रण करना होता है। इसी प्रकार साम्यावस्था में प्रकृति से सृष्टि से संभव नहीं है। उसकी साम्यावस्था को भंग होकर आपसी मिश्रणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकृतियों से ही सृष्टि की आकृतियां बनने लगती हैं। इसको ही सांख्य में कहा है – रागविराग योग: सृष्टि। प्रकृति, विकृति और आकृति ये तीन का क्रम होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीनों रूपों, उनके तीनों गुणों और तीन क्रियात्मक वेगों के परस्पर संघात से समस्त सृष्टि होती है। तीन का तीन में संघात होने से नौ का यौगिक बन जाता है। यही सृष्टि का पहला गर्भ होता है। पदार्थों में निविष्ट इन गुणों को आज का विज्ञान न्यूट्रल, पॉजिटिव और निगेटिव गुणों के रूप में व्याख्यायित करता है। इन गुणों का आपसी गुणों के समिश्रण से उत्पन्न बल के कारण इषत्, स्पंदन तथा चलन नामक तीन प्रारंभिक स्वर उभरते हैं। ये गति के तीन रूप हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें ही, इक्वीलीबिरियम यानी संतुलन, पोटेंशियल यानी स्थिज और काइनेटिक यानी गतिज के नाम से गति या ऊर्जा के तीन मूल स्तरों के रूप में परिभाषित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीन रूप, तीन गुण और उनकी तीन क्रियात्मक वेग, इन सभी का योग नौ होता है।

जैसा कि हम देखते और जानते हैं कि जैविक सृष्टि का जन्म मादा के ही कोख से होता है। अत: मूल प्रकृति और उससे प्रसूत त्रिगुणात्मक आधारों जिसके कारण सृष्टि अस्तित्व में आती है, को हमारे मनीषियों ने नारी के रूप में ही स्वीकार किया। इसलिए पौराणिक आख्यानों में शक्ति के क्रियात्मक मूल स्वरूपों को ही सरस्वती, लक्ष्मी और दूर्गा के मानवीय रूपों के माध्यम से उनके गुणों और क्रिया सहित व्यक्त करने का प्रयास किया। हम तीन देवों की भी कल्पना करते हैं – ब्रह्मा विष्णु और महेश जोकि सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं। लेकिन ये तीनों आधार हैं आधेय नहीं। ये शक्तिमान हैं। इनमें से वह शक्ति निकल जाए तो वे कभी विशिष्ट कामों के पालन में असमर्थ हो जाते हैं। शक्ति ही इनमें व्याप्त देवत्व का आधार है। इसलिए देवताओं की आरतियों के अंत में लिखा होता है – जो कोई नर गावे। कहीं भी नारी नहीं लिखा, क्योंकि नारी देवताओं की स्तुति कैसे करेगी, वह तो स्वयं वंदनीया है, देवताओं की भी स्तुत्य है।

समाज के सभी जैवसंबंध स्त्रियों पर ही टिका है। रिश्तों का सारा फैलाव, घर-परिवार की सारी संकल्पना स्त्रियों के कारण ही अस्तित्व में आती है। लेकिन पश्चिम की मानसिकता के भ्रमजाल के कारण स्वयं को केवल आधी आबादी मानने लगी हैं और पुरुषों से प्रतिद्वन्द्विता के चक्कर में पड़ गई हैं। नारी की पुरुष से प्रतिद्वन्द्विता कैसे संभव है, वह तो पुरुष को जन्म देती हैं। वह आधी आबादी नहीं है, वह तो इस समस्त आबादी की जन्मदात्री है। इसलिए माता होना नारी की सार्थकता है और माँ कहलाना उसका सर्वोच्च संबोधन है। बंगाल में हम छोटी-छोटी बच्चियों को भी माँ कह कर बुलाते हैं। हरेक संबंध में माँ लगा कर संबोधित करते हैं, जैसे पीसीमाँ, मासीमाँ, बऊमाँ आदि। इसलिए ऋग्वेद में यह निर्देश पाया जाता है कि श्वसुर बहु को आशीर्वाद दे कि वह दस पुत्रों की माता बने और पति तुम्हारा ग्यारहवाँ पुत्र हो जाए। यह वास्तविकता भी है। विवाह नया हो तो बात अलग होती है, परंतु संतानों के जन्म के बाद स्त्री का ध्यान पति की बजाय संतानों की ओर अधिक होता है और जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, स्त्री संतान की भांति ही पति की भी वात्सल्यजनित चिंता करने लगती है।

आदिशक्ति को जगज्जननी क्यों कहा गया, इसे हम ईशावास्योपनिषद के एक मंत्र से मिलता है। पहले मैं यह बता दूँ कि चूंकि वैदिक संकल्पना में ईश्वर अकल्पनीय, निराकार, निगूढ़ है, इसलिए उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती, उसका आकार नहीं हो सकता। यदि कोई आकार होगा भी तो वह मनुष्य के समझ से परे होगा। हम मन, बुद्धि, कल्पना और ज्ञान के आधार पर सोचते हैं। परंतु ईश्वर तो इन सब से परे है। इसलिए हम उसकी आकृति नहीं गढ़ सकते। यजुर्वेद कहता है कि न तस्य प्रतिमा अस्ति। यह हमारी भारतीय परंपरा में बौद्धों के काल से पूर्व तक जीवंत रहा है। उससे पहले तक हम केवल शिवलिंग, शालीग्राम और पिंडी का पूजन करते थे। देवी के लिए पिंडी, क्योंकि वह गर्भ का स्वरूप है, विष्णु के लिए शालीग्राम, क्योंकि वह आकाशगंगा का स्वरूप है और शिव के लिंग, क्योंकि शिव अग्निसोमात्मक है तो दीपक के लौ के भांति लिंग। दीपक में लौ अग्नि है और तेल सोम। बुद्ध के बाद बौद्धों के तर्ज पर मूर्तियां गढ़ी गईं।

ईशावास्योपनिषद में कहा है पूर्णमिद:…। इसका अर्थ है कि वह भी पूर्ण है और यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है और फिर भी पूर्ण शेष बच जाता है। पूर्ण से पूर्ण निकल जाए, फिर भी पूर्ण शेष बचे, वही ईश्वर है। यदि नौ पूर्णांक में से नौ पूर्णांक निकल जाए तो शून्य बचना चाहिए, परंतु ऋषि कहता है कि उसमें शून्य नहीं, नौ ही बचेगा। यह एक विशेष घटना है। यह भौतिक स्तर पर संसार में कहीं नहीं घटती है, इसका केवल एक अपवाद है। एक स्त्री गर्भ धारण करती है, संतान को जन्म देती है। जन्म लेने वाली संतान पूर्ण होती है और माँ भी पूर्ण शेष रहती है। इसलिए माँ ईश्वर का ही रूप है। संसार की सभी मादाएं ईश्वर का ही स्वरूप हैं। इसलिए हमने प्रकृति की कारणस्वरूपा त्रयात्मक शक्ति और फिर उसके त्रिगुणात्मक प्रभाव से उत्पन्न प्राकृतिक शक्ति के नौ स्वरूपों को जगज्जननी के श्रद्धात्मक भावों में ही अंगीकार किया। फिर दुर्गा के नौ स्वरूपों में प्रकृति के त्रिगुणात्मक शक्ति को देखा। वे हैं – शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ दुर्गाएं काल और समय के आयाम में नहीं हैं, उससे परे हैं। ये दिव्य शक्तियां हैं, काल और समय के परे हैं। इनका जो विकार निकलता है, वही काल और समय के आयाम में प्रवेश करता है और ऊर्जा का रूप ले लेता है।

इस प्रकार ये नौ दूर्गा, उनके नौ प्रकार और उनके प्रकार की ही काल और समय में नौ ऊर्जाएं हैं। ऊर्जाएं भी नौ ही हैं क्योंकि यह उनका ही विकार है। यह तो भौतिक ऊर्जाओं की बात हुई, अब इन भौतिक ऊर्जाओं के आधार पर सृष्टि की जो आकृति बनती है, वह भी नौ प्रकार की ही है। पहला है, प्लाज्मा, दूसरा है क्वार्क, तीसरा है एंटीक्वार्क, चौथा है पार्टिकल, पाँचवां है एंटी पार्टिकल, छठा है एटम, सातवाँ है मालुक्यूल्स, आठवाँ है मास और उनसे नौवें प्रकार में नाना प्रकार के ग्रह-नक्षत्र। यदि हम जैविक सृष्टि की बात करें तो वहाँ भी नौ प्रकार ही हैं। छह प्रकार के उद्भिज हैं – औषधि, वनस्पति, लता, त्वक्सार, विरुद् और द्रमुक, सातवाँ स्वेदज, आठवाँ अंडज और नौवां जरायुज जिससे मानव पैदा होते हैं। ये नौ प्रकार की सृष्टि होती है।
पृथिवी का स्वरूप भी नौ प्रकार का ही है। पहले यह जल रूप में थी, फिर फेन बनी, फिर कीचड़ (मृद) बना। और सूखने पर शुष्क बनी। फिर पयुष यानी ऊसर बनी। फिर सिक्ता यानी रेत बनी, फिर शर्करा यानी कंकड़ बनी, फिर अश्मा यानी पत्थर बनी और फिर लौह आदि धातु बने। फिर नौवें स्तर पर वनस्पति बनी। इसी प्रकार स्त्री की अवस्थाएं, उनके स्वभाव, नौ गुण, सभी कुछ नौ ही हैं।

इसी प्रकार सभी महत्वपूर्ण संख्याएं भी नौ या उसके गुणक ही हैं। पूर्ण वृत्त 360 अंश और अर्धवृत्त 180 अंश का होता है। नक्षत्र 27 हैं, हरेक के चार चरण हैं, तो कुल चरण 108 होते हैं। कलियुग 432000 वर्ष, इसी क्रम में द्वापर, त्रेता और सत्युग हैं। ये सभी नौ के ही गुणक हैं। चतुर्युगी, कल्प और ब्रह्मा की आयु भी नौ का ही गुणक है। सृष्टि का पूरा काल भी नौ का ही गुणक है। मानव मन में भाव नौ हैं, रस नौ हैं, भक्ति भी नवधा है, रत्न भी नौ हैं, धान्य भी नौ हैं, रंग भी नौ हैं, निधियां भी नौ हैं। इसप्रकार नौ की संख्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसलिए नौ दिनों के नवरात्र मनाने की परंपरा हमारे पूर्वज ऋषियों ने बनायी।

नवरात्र में नया धान्य आता है। सामान्यत: वर्ष में 40 नवरात्र होते हैं, परंतु मुख्य फसलें दो हैं रबी और खरीफ, इसलिए दो नवरात्र महत्वपूर्ण हैं – चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र। एक में गेंहू कट कर आता है और एक में चावल कट कर आता है। नये धान्य में ऊष्मा काफी अधिक होती है क्योंकि उसमें धरती की गरमी होती है। इसलिए उस नवधान्य को खाने से पचाना कठिन होता है। इसलिए नौ दिन व्रत रह कर अपनी जठराग्नि अधिक तेज किया जाता है। तब उस धान्य को पचाना सरल हो जाता है। इसमें भी शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण है। शारदीय नवरात्र से पहले ही गुरू पूर्णिमा, रक्षा बंधन आदि सभी महत्वपूर्ण त्यौहार पड़ते हैं। वर्षा के चौमासे के बाद फिर से गतिविधियां प्रारंभ की जाती हैं, इसलिए शारदीय नवरात्र में शक्ति की आराधना की जाती है।



साभार – भारतीय धरोहर पत्रिका