"मैं और ये आसमाँ एक से हैं"

मैं और ये आसमाँ एक से हैं,
मिलते रोज़ दोनों अपनी ज़मी से मगर एक होते नहीं है,
अंत दोनों का ही नही मगर एक जगह पे दोनों ही खत्म होते से हैं.

ये समुद्र और मैं एक से हैं,
गरजते बाहर से खूब मगर अंदर कुछ छुपाये शांत से हैं,
विस्तारित दोनों अनंत तक मगर खुद में ही दोनों कुछ सिमटे से हैं.

मैं और ये पहाड़ दोनों ही एक से हैं,
चांद को छूने की कोशिश में अड़े अपनी जगह दोनों ही कुछ पागल से हैं,

मैं और ये हवा एक से हैं,
चलते रहते दोनों ही मगर फिर भी कुछ स्थिर से हैं,

मैं और ये बिन बरसे बादल एक से हैं,
छिपाये कुछ आंसू आंखों में दोनों ख़ामोश बैठे से हैं,

मैं और ये दुनिया एक से हैं
इसके बिना मैं नही मेरे बिना ये नही,
फिर भी मगर दोनों अलग अलग से हैं!!!

"हंसी में मैं अपनो की, अपनी जय ढूंढता हूँ"

अक्सर क्या ढूंढता हूँ, मैं लय ढूंढता हूँ,
धीमी शांत लहरों में, प्रलय ढूंढता हूँ।

बैठा हूँ किनारे पर, देख रहा क्षितिज को हूँ,
जैसे खारे पानी मे कुछ मय ढूंढता हूँ।

वर्तमान में बैठा हूँ, रेत पे रख सिर लेटा हूँ,
इस सूकून में क्यों भविष्य का भय ढूंढता हूँ।

होना है मुझको भी कुछ, लेकिन होकर करना क्या,
हंसी में मैं अपनो की, अपनी जय ढूंढता हूँ।

अच्छा और बुरा जो भी, वक़्त के हाथ का होना है,
जो भी हो स्वीकार मुझे, अभय ढूंढता हूँ।

मन की एक गति है तो, गति रोकना चाहता हूँ,
तीनों काल के बाहर का, समय ढूंढता हूँ।