"हंसी में मैं अपनो की, अपनी जय ढूंढता हूँ"

अक्सर क्या ढूंढता हूँ, मैं लय ढूंढता हूँ,
धीमी शांत लहरों में, प्रलय ढूंढता हूँ।

बैठा हूँ किनारे पर, देख रहा क्षितिज को हूँ,
जैसे खारे पानी मे कुछ मय ढूंढता हूँ।

वर्तमान में बैठा हूँ, रेत पे रख सिर लेटा हूँ,
इस सूकून में क्यों भविष्य का भय ढूंढता हूँ।

होना है मुझको भी कुछ, लेकिन होकर करना क्या,
हंसी में मैं अपनो की, अपनी जय ढूंढता हूँ।

अच्छा और बुरा जो भी, वक़्त के हाथ का होना है,
जो भी हो स्वीकार मुझे, अभय ढूंढता हूँ।

मन की एक गति है तो, गति रोकना चाहता हूँ,
तीनों काल के बाहर का, समय ढूंढता हूँ।