श्री गणेश का गूढ़ रहस्य

 प्रतीक एवं उसका सार

यह संवाद एक ऋषि एवं उनके तीन शिष्यों के मध्य पुरातन काल के एक आश्रम में हुआ था। ऋषिवर अपने युवा शिष्यों को श्री गणेश के रहस्य की गहनता के दर्शन कराते हैं। शिष्य ऋषिवर को आचार्य कह कर सम्बोधित कर रहे हैं। शिष्यों के नाम तो उपनिषद की कहानियों में जीवित हैं, परंतु यह ऋषिवर, उन कुछ ऋषिओं की भांति अज्ञात हैं जिन्होंने सर्वोच्च सत्य को पृथ्वी पर धारण किया था। ऐसे ऋषि, दीर्घ काल पूर्व ही नाम और रूप से परे जा चुके हैं।

वह गणेश चतुर्थी से एक दिवस पूर्व की संध्या थी। सूर्यदेव क्षितिज पर नारंगी प्रकाश के रूप में विद्यमान थे। वृक्षों के मध्य से सरसराती हुई प्रवाहित हो रही मंद पवन को छोड़कर, आश्रम में और कोई हलचल नहीं थी।

ऋषिवर के युवा शिष्य वटवृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। उनके ओजस्वी आचार्य, ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे शांत ध्यान अवस्था में हों। कुछ दूर से उन्हें गायों की घंटियों की ध्वनि सुनाई दे रही थी, जो सम्भवतः अभी भी चर रहीं थीं।

अरुणी, जो कि आचार्य के सबसे युवा शिष्यों में से था, ने नमन के लिए अपने हाथ जोड़े तथा अपने कण्ठ को निर्बाध किया। वह संध्या की शांति को भंग नहीं करना चाहता था इसलिए उसने मंद स्वर में पुकारा, “आचार्य?”

आचार्य के अपने चक्षु खोले और अरुणी की ओर देखकर मुस्कुराते हुये कहा, —- “हाँ, अरुणी?”

“क्या श्री गणेश सच में हैं या यह केवल एक आध्यात्मिक दन्तकथा है?”

“अरुणी, सच क्या है?”

“मेरा पूछने का अर्थ था, क्या वह सच में ईश्वर हैं?”

“और ईश्वर क्या है?” ऋषिवर ने अपने नेत्र में एक चमक के साथ प्रश्न किया। अरुणी शांत रहा; उसे अच्छे से पता था की उसने अगर उत्तर दिया तो वह आचार्य की फाँस में आ जाएगा। ऋषिवर ने कुछ क्षण प्रतीक्षा की, उनके नेत्रों में वह नटखट सी चमक अभी भी थी। उन्हें प्रायः अपने इन किशोर शिष्यों को स्पष्ट प्रशनों से, जिनके उत्तर नहीं दिए जा सकते थे, छेड़ने में आनंद मिलता था, और ऐसा प्रतीत होता था की शिष्यगण इस के आदि थे।

“ईश्वर,” आचार्य ने अपनी कोमल, मधुर वाणी में कहा, “वत्स, वह सर्वविद्यमानता है जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड प्रवाहमान है। यह सर्वविद्यमानता सर्वव्यापी है, नित्य है। तो फिर क्या या कौन ईश्वर नहीं है?”

शिष्यों ने सिर हिलाते हुए सहमति प्रकट की। पता नहीं क्यों, जब जब आचार्य ईश्वर के सम्बन्ध में कुछ वर्णन करते थे, उन्हें एक शांत विशालता के भाव का अनुभव होता था। उन्होंने कई अवसरों पर इसका अनुभव किया था।

“वत्स, श्री गणेश एक द्वार हैं, उद्घाटन हैं इस सर्वविद्यमानता की ओर,” ऋषिवर ने आगे वर्णन किया, “श्री गणेश एक सांसारिक या दिव्य व्यक्ति नहीं हैं, परन्तु वह एक द्वार हैं जिसमें हम प्रवेश कर सकते हैं, अनंत रूप से! श्री गणेश का कोई अंत नहीं है।”

“ क्या वह गज-ईश्वर…?” उपमन्यु, अरुणी से कुछ साल बड़े उसके मित्र, ने सकुचते हुए ऋषिवर की ओर देखकर कहा।

“गज-ईश्वर, निसंदेह” ऋषिवर मुस्कुराए, “वह न तो गज हैं और ना ही ईश्वर!”

किशोर शिष्य अब जिज्ञासु प्रतीत हो रहे थे। ऋषिवर कुछ क्षण के लिए चुप रहे। जैसे जैसे आकाश का वर्ण श्याम हुआ, गायों की घंटीयों का संगीत धीमा होता गया। कुछ क्षण मौन में बिताने के बाद ऋषिवर फिर से बोले : “श्री गणेश हमें अचिंत्य, अव्यक्त एवं अनंत रूप में ज्ञात हैं। क्या तुम जानते हो इन शब्दों के अर्थ क्या हैं?”

“अचिंत्य वह है जिसके बारे में चिंतन या विचार नहीं किया जा सकता, वह विचार से परे है।” उपमन्यू ने कहा।

“अव्यक्त,” अरुणी के कहा, “जो व्यक्त नहीं है, जो अभिव्यक्त नहीं है। और अनंत वह है, जिसका अंत नहीं है, शाश्वत।”

“निसंदेह,” ऋषिवर ने कहा, “और इसलिये, उसका कोई रूप नहीं होता, कोई गुण नहीं होता, ना कोई अस्तित्व होता है, जैसा की तुम्हें या मुझे ज्ञात है!”

“कोई अस्तित्व नहीं?” वरुण के प्रश्न किया। वह ऋषिवर का सबसे ज्येष्ठ शिष्य था, जो अब तक एक दार्शनिक बन चुका था।

“वह जो किसी भी स्वरूप में उपस्थित नहीं है, वह अव्यक्त है – वरुण; तथापि, हमारी मानव चेतना के लिए वह अस्तित्वहीन है। यह एक गहन विषय है,” ऋषिवर के कहा, “श्री गणेश को परब्रह्म के वास्तविक रूप के रूप में जाना जाता है, परब्रह्म रूप:!”

“परब्रह्म,” अरुणी ने कहा, “जो अवश्य ही निराकार है। तो निराकार का आकार कैसे हो सकता है, आचार्य?”

“अगर तुमने यह समझ लिया, अरुणी,” ऋषिवर ने कहा, “तो तुम श्री गणेश को समझ जाओगे और यह भी समझोगे की उन्हें गज रूप में क्यों दर्शाया गया है।”

“आचार्य,” अरुणी उसी क्षण बोला, “अब मैं यह रहस्य जानने के लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ। कृपया हमें बताएं!”

“यह निराकार वास्तव में निराकार नहीं है। सर्वप्रथम यह जानो। मानव चेतना केवल भौतिक या मानसिक रूप का बोध कर सकती है : वह रूप जो बाहर से हमें दिखाई देता है अथवा वह रूप जो हमारे मन एवं कल्पना में उत्पन्न होता है। इन प्रकट रूपों से परे भी एक रूप है, व्यक्त से परे, जो मन और इंद्रियों के लिए अव्यक्त है, पर अंतर चेतना के समक्ष स्पष्ट और व्यक्त है। यही है जिसको स्वरूप की संज्ञा दी गई है।”

“क्या स्वरूप का बोध कभी सम्भव है, आचार्य?” अरुणी ने प्रशन किया।

“अवश्य पुत्र, स्वरूप को वह जान सकता है जो स्वयं वो बन जाए जिसे वह जानना चाहता है। हमारे पूर्वजों ने इसे तदात्मय ज्ञान की संज्ञा दी है — आप जिसका बोध करते हैं वह आप बन जाते हैं, जैसे की जो आप बन जाते हैं उसका आपको बोध हो जाता है।”

फिर ऋषिवर ने धीरे से उच्चारण किया, अधिकतर स्वयं से ना की शिष्यों की ओर— “अजम निर्विकलपम् निराकारमेकम… श्री गणेश अजन्में हैं, अपरिवर्तनीय एवं निराकार हैं… और उनके लिए जिनके पास आध्यात्मिक दृष्टि है, योग की दृष्टि है, उनके लिए गणेश साक्षात उस सर्वविद्यमानता की चेतना के रूप में ज्ञात हैं। वह स्वयं दिव्य शक्ति हैं, जो ब्रह्मांड को चलायमान करती है तथा वह भँवर हैं जिसमें समस्त ब्रह्मांड विलीन होगा…इस लिए यह कहा जाता है की उनका जन्म शिव और पार्वती से हुआ है, स्वयं परमेश्वर और उनकी शक्ति से।”

वातावरण जैसे विद्युत से प्रभारित हो गया हो, ऋषिवर अपने रहस्यमय उच्चारण के पश्चात अपने आसन में स्थिरता से विराजमान थे; उनके नेत्र बंद थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वे किसी और लोक मैं हैं, जैसे कि गणेश में तल्लीन, ब्रह्म के किसी अगम्य आयाम में। तीनों किशोर शिष्य प्रतीक्षारत थे, प्रायः तन्मय अवस्था में लीन।

एक अनंत प्रतीत होने वाली कालवधि के पश्चात, आचार्य बोले, “ दैवीय इच्छा और कृपा के बिना श्री गणेश का बोध कोई नहीं कर सकता, क्योंकि गणेश, जो कि दिव्य जोड़ी की प्रथम संतान हैं, उनका बोध स्वयं दिव्य ईश्वर को जानने के समान है। वह साधक जो गणेश पर ध्यान लगाता है और उनकी प्राप्ति करता है, वास्तव में शिव एवं उनकी शक्ति की प्राप्ति करता है।”

“अब मैं तुम्हें प्रत्यक्ष रूप से बताता हूँ कि पार्वती के प्रतीक, दिव्य शक्ति से निर्मित, गणेश कैसे सृष्टि में अवतरण करते हैं। मेरे इन शब्दों का ध्यानपूर्वक श्रवण करो और उन पर मनन करो — क्योंकि यह शब्द जिन्हें मैं व्यक्त कर रहा हूँ इनके पीछे, सत्य की शुद्ध शक्ति विद्यमान है, और तुम्हें इस शक्ति को अवश्य ही स्वयं में सम्मिलित कर लेना चाहिए। वास्तव में, इसी शक्ति से, ना कि तुम्हारी बुद्धि या पूर्व ज्ञान से तुम गणेश के सत्य का साक्षात्कार करोगे।”

इस प्रकार बात करते हुए, ऋषिवर ठहरे ताकि ये शब्द किशोर शिष्यों के अंतर में समा सकें। प्रत्येक शिष्य को ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे आचार्य के शब्दों के द्वारा विद्युत उनके सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर रही थी। प्रत्येक को यह ज्ञात था कि कभी कभी आचार्य बुद्धि के स्तर से नहीं पर चेतना के उस स्तर से बोलते हैं जहाँ पर विचारों या वाणी के किसी भी हस्तक्षेप के बिना, जो प्रत्यक्ष रूप से दृष्ट होता है वही प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त होता है।

“श्री गणेश को गणपति के नाम से भी जाना जाता है — गणों के स्वामी,” आचार्य ने आगे बोला, “गण का अर्थ है समूह या झुंड। यह समस्त ब्रह्माण्ड समूहों एवं झुंडों से निर्मित है। वह परमाणु जिससे सारा भौतिक जगत निर्मित है, वह स्वयं सूक्ष्म परमाणु कणों का एक समूह है; जब तुम ब्रह्मांड के सूक्षमतम मापक्रम तक पहुँच जाओगे जहाँ पर दिक् और काल लुप्त हो जाते हैं, तुम देखोगे कि वहाँ केवल शक्ति के अदृश्य चक्रवात हैं जो स्वयं सूक्ष्म शक्ति-क्षेत्रों के समूह हैं। जैसे जैसे तुम मापक्रम में ऊपर जाते हो, तुम देखोगे कि यह समूह बड़े होते जाते हैं, सूक्ष्म शक्ति-क्षेत्रों से सूक्ष्म परमाणु कण, सूक्ष्म परमाणु कणों से अणु, अणुओं से वायुरूपी द्रव्य और वायुरूपी द्रव्य से तारे, और तारों से आकाशगंगाऐं। ब्रह्मांड को ध्यान से देखो और तुम्हें सब ओर समूह ही दृष्ट होंगे। सकल दिक् और काल समूहरूप हैं, कुछ प्रत्यक्ष हैं, परंतु बहुधा अप्रत्यक्ष हैं। तुम्हारे स्वयं का भौतिक शरीर भी कोशिकाओं, ऊतकों, अंगों का समूह है। पृथ्वी के समस्त जीव समूह ही हैं, रोगाणुओं एवं जीवाणुओं के विनीत समूहों से ले कर स्तनधारी पशुओं एवं मनुष्यों तक; और फिर व्यक्तियों के समूह, जन जातियों के, गाँव के, नगरों के और राष्ट्रों के समूह।”

“हमारे स्वयं के अंदर, मानसिक स्तर पर, हमारी अनुभूति की इंद्रियाँ एवं कर्म की इंद्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियाँ, भी समूह ही हैं। मन इंद्रियों को नियंत्रित करता है। बुद्धि, जो की विवेक शक्ति है, मन को नियंत्रित करती है। तथापि, दस इंद्रियाँ, मन एवं बुद्धि मिला कर बारह बनते हैं और इन सबके समूह को अंतर्गण की संज्ञा दी गयी है।”

“अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर,” आचार्य ने आगे कहा, “ऐसे समूह हैं। इसी तरह से सृष्टि या ब्रह्मण्डीय प्रकटीकरण विभेदित एवं व्यवस्थित है। और श्री गणपति गणेश इन सब समूहों के स्वामी या ईश्वर हैं। क्या तुम इस के सत्य को देख पा रहे हो? श्री गणेश वह शक्ति हैं जो इन सब अनेक समूहों को एक साथ रखते हैं, वह धर्म हैं, सभी समूहों को साथ बाँधने वाली शक्ति हैं और उन के बिना जिस विश्वब्रह्मांड को हम जानते हैं, वह सरलता से टूट कर बिखर जाएगा।”

ऋषिवर के शब्द इतने स्पष्ट थे कि किशोर शिष्य जो सुन रहे थे उसे प्रायः देख भी पा रहे थे। चेतना की उस शक्ति के द्वारा जिसका ज्ञान केवल इन चेतना के सिद्ध पुरुषों को ही होता है, ऋषिवर के वाक्, शिष्यों की साक्षात दृष्टि में परिवर्तित हो गए। जो श्रवण किया वह दृष्ट हो गया। इसीलिए चेतना के सिद्ध पुरुषों को द्रष्टा कह कर संबोधित किया जाता है।

“आचार्य, क्या श्री गणेश का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना सम्भव है?” उपमन्यू ने उत्कटता से पूछा।

ऋषिवर अपने शिष्य की ओर व्यापकता से मुस्कुराए, प्रत्यक्ष था कि प्रशन के पीछे की शक्ति से वह प्रसन्न थे। ”हाँ पुत्र,” ऋषिवर ने उत्तर दिया, “सब कुछ संभव है यदि एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व की समस्त ऊर्जा को अपनी इच्छाशक्ति एवं अभिप्सा में ध्यान केंद्रित कर दे। तपस [1] तुम्हारे व्यक्तित्व की शक्ति है और संकल्प तुम्हारी इच्छाशक्ति एवं अभिप्सा है। जब तपस को संकल्प पर केंद्रित किया जाता है, तब जो भी मन में धारित है वह आत्मा में साध्य हो जाता है। यह योग का गुप्त रहस्य है पुत्र।”

संक्षिप्त व्याख्या का उद्देश्य तुरंत सिद्ध हो गया : सभी शिष्यों ने एक साथ एक धीमी एवं केंद्रित शक्ति की गति का अनुभव किया जो उनकी रीढ़ में अरोहित हो रही थी, निम्न चक्रों से ऊपर आज्ञा चक्र की ओर, भ्रूमध्य में – भौहें के मध्य का केंद्रबिंदु। तीनो शिष्यों के मन तत्काल शांत एवं ध्यान केंद्रित हो गए।

“कल गणेश चतुर्थी है”, आचार्य ने सहज भाव से आगे कहा, अपने शिष्यों का आशय से अवलोकन करते हुए, जैसे की प्रत्येक की अंतर तत्पर्ता को परख रहे हों, “और कल ही तुम श्री गणेश की ओर प्रथम निर्णयात्मक सोपान कर सकते हो। मेरे गुरु कहते थे कि साधना प्रारम्भ करने का सर्वोच्च समय वह क्षण है जिस क्षण अभिप्सा या प्रशन व्यक्ति की बुद्धि में उदित होता है।” पुनः आचार्य ने शब्दों के शिष्यों के मन में गहनता से प्रवेश करने की प्रतीक्षा की, जैसे कि बहुत ध्यान से साधना भूमि को तैयार कर रहें हों, अधिकतम ध्यान एवं सावधानी से बीजारोपण करते हुए। वास्तव में, गुरु की कृपा असीम है।

“मेरे बच्चों, समझो,” ऋषिवर ने कहा, “की चतुर्थी का क्या अर्थ होता है। तुम अपनी जागृत अवस्था से तो परिचित हो, और स्वप्न अवस्था से भी, एवं सुशुप्ति अवस्था – गहन निद्रा अवस्था से भी। इन अवस्थाओं की जानकारी तुम्हें अपनी दिनचर्या के अनुभव से है, तथा मैंने तुम्हें इन अवस्थाओं और इन के बीच के पारगमन के प्रति अत्यंत सचेत होने की शिक्षा दी है। पर एक चतुर्थ अवस्था भी है जिसका अनुभव तुम्हें अभी नहीं हुआ है, एक अवस्था जो तब तक अपने को प्रकट नहीं करती जब तक एक व्यक्ति की अंतर चेतना साधना के द्वारा पूर्णत: परिपक्व नहीं होती।”

जैसे उनके मनों की शांति और गहन होती चली गयी, आचार्य ने आगे कहा: “चतुर्थी – तीन अवस्थाओं – जागृत, स्वप्न और सुशुप्ति के परे की अवस्था है – चतुर्थ अवस्था। यह ही चतुर्थी का गुप्त या अंतर महत्व है, मेरे बच्चों। चतुर्थी की प्राप्ति ही हमारे योग की अभिप्सा है, सदा चतुर्थ अवस्था में स्थित रहना, तुरिया अवस्था, जैसे हमारे पूर्वज सम्बोधित करते थे।”

आचार्य ने एक बार फिर विराम लिया। अब तक अँधेरा हो चुका था और पूरा आश्रम एक गहन शांति से आवृत था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तीनो शिष्य आकाशीय ज्ञान से प्रकाशमान थे जो कि ऋषिवर की अर्ध-उद्घाटित चक्षुओं से प्रवाहित हो रहा था। बाह्य एवं अंतर रूप से सब स्थिर था।

“केवल तब जब हमारा अंतरमन विचारशून्य हो जाता है और पूर्ण चेतना स्थिर हो जाती है, तब हम तुरिया अवस्था में प्रविष्ट होते हैं। यह चतुर्थी की साधना है — अपने मन को सर्वथा स्थिर बना लो, विचारशून्य, एकमात्र दिव्य ईश्वर की ज्योति की ओर केंद्रित – ज्योति: परस्य। एकमात्र वह ज्योति तुम्हें माया की महारात्रि से परे ले जाएगी, सत्य के नित्य प्रभात की ओर। इस प्रकार से अंतर मौन तक पहुँचने के लिए, मन को विचारों से मुक्त करने के लिए, व्यक्ति को उपवास करना होता है। यह चतुर्थी का प्रतीकात्मक उपवास है। उपवास केवल एक दिन तक भोजन का त्याग करना नहीं है परंतु स्वयं को इच्छा एवं द्वेतभाव की लीला से ऊपर के स्तर पर स्थापित करना है, प्रतीक स्वरूप तथा न्यूनतम एक दिवस के लिए। उपवास शब्द का ध्यानपूर्वक श्रवण करो — उप का अर्थ है निकट, जैसे की उपनिषद शब्द में उप, और वास यानी रहना या पालन करना। तथापि, जो व्यक्ति उपवास करता है, वह बाह्य जगत एवं उसके सब बाह्य एवं अंतर विकर्षणों से पृथक हो जाता है, और जिसके लिए वह उपवास करता है, चेतना में वह उस के निकट रहता है। मेरे बच्चों, इसलिए मैं तुम्हें यह कहता हूँ, उपवास के पूर्ण ज्ञान के साथ श्री गणेश के लिए चतुर्थी का उपवास रखो। यह बहुत कम महत्व रखता है कि तुम भोजन ग्रहण करते हो या नहीं; महत्व है ‘भोजन’ या अन्न का, जो तुम अपने मन और इंद्रियों को ग्रहण करने के लिए दोगे। जब तुम उपवास करते हो, तब तुम अपने मन और इंद्रियों का उपवास करते हो, और वह उपवास एक शुद्धि, एक परिमार्जन एवं एक दिव्य चेतना की तैयारी है। इसलिए सब प्रकार के उपवास शुद्धिकरण हैं। श्री गणेश के लिए उपवास करने का अर्थ है श्री गणेश की निकटता में वास करना, श्री गणेश को अपने मन एवं हृदय में स्थापित करना। यह गणेश चतुर्थी की वास्तविक महत्वपूर्णता है, मेरे बच्चों!”

आचार्य शांत एवं स्थिर अवस्था में चले गए, और आचार्य का शांत भाव उनके भौतिक शरीर की सीमाओं के बाहर प्रवाहित होता प्रतीत हो रहा था तथा धीरे से शिष्यों के अंतरतम व्यक्तित्व को पल्लवित कर रहा था। शिष्यगण अत्यंत सौभाग्यवान थे, गुरु की जीवंत उपस्थिति के लाभार्थी, गुरु के शांतभाव एवं कृपा का पूर्णत: सेवन कर रहे थे, और अपनी चेतना के किसी लघु परंतु प्रबुद्ध अंश में, वह अपने आचार्य के साथ एकत्व का अनुभव कर रहे थे।

अपने आचार्य के साथ कुछ अवधि के अन्तर योग के पश्चात, अरुणी ने अपने नेत्र खोले और फिर से पूछा : “श्री गणेश के जन्म का क्या रहस्य है आचार्य? यह एक गूढ़ रहस्य प्रतीत होता है, जिसे हम अंतर्ज्ञान के द्वारा केवल देखना प्रारम्भ कर पा रहे हैं। निराकार एवं अव्यक्त का जन्म कैसे हो सकता है?”

आचार्य मुस्कुराए और एक विराम के पाश्चात्य बोले — “तुमने बहुत समझदारी से प्रशन किया है, वत्स। नित्यस्वरूपी का ना जन्म है ना मृत्यु, ना आना ना पार जाना, ना आरोहण ना अवरोहण, यह नित्यरूपी गतिशून्य भी है, अपरिवर्तनीय एवं अकारण भी है। तो श्री गणेश के जन्म का क्या रहस्य है? प्राचीनकाल से यह कहा जाता है कि उनका सृजन सर्वोच इश्वरी माँ, पार्वती के शरीर पर जमा हुए मैल से हुआ था। और माँ, जिन्हें एकाकी भाव सता रहा था, उन्हें संतान की कामना थी जो उनका सहयोगी बने। स्पष्ट रूप से, दिव्य माँ को एकाकी भाव नहीं सता सकता : यह एकाकी भाव ऋषिकवि की एक सांकेतिक अभिव्यक्ति है नित्य एकांत भाव की, अद्वितीयता के सम्पूर्ण एकांत की। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि पार्वती जो शिव की, स्वयं ईश्वर की, अर्धांगिनी हैं, सदा शिव के साथ अंतरएकत्व की वासी हैं, क्योंकि ईश्वर की शक्ति ईश्वर के अंतर में इसी प्रकार वास करती है। अर्थात्, बृहत् माँ का एकाकी भाव वास्तव में स्वयं को व्यक्त करने की ईश्वरीय इच्छा की अभिव्यक्ति है, एक के अनेक बनने की प्रक्रिया। इसी प्रक्रिया से स्वयं शिव, शक्ति के गर्भ से ब्रह्माण्ड का प्रकटन करते हैं। इसलिए श्री गणेश वास्तव में प्रथम निर्मित हैं, प्रथम संतान, जो स्वयं इस ब्रह्मांड का रूप ले लेते हैं। ऐसा नहीं है कि गणेश ब्रह्मांड को उत्तपन्न करते हैं, स्वयं गणेश का व्यक्ति-करण ही ब्रह्मांड है। यही है जो हमें समझना है, मेरे बच्चे। फिर तुम्हें ज्ञात होगा कि क्यों और कैसे श्री गणेश गणपति हैं और श्री गणेश स्वयं सर्वत्र विद्यमान सर्वविद्यमानता हैं, और क्यों वह स्वयं इस विशाल सर्वविद्यमानता के द्वार हैं। इस ज्ञान के साथ, इस चतुर्थी श्री गणेश पर अपना ध्यान केंद्रित करो।”

शिष्यों ने आचार्य के शब्दों को गहन आनंद के साथ स्वीकार किया, जैसे शब्द स्वयं ही उनके अन्तर में आनंद के गहन स्रोत का उद्घाटन कर रहें हो, जैसे यह बोध स्वयं ईश्वर के आनंद स्वरूप था।

“क्या वास्तव में उनका शिर काट दिया गया था?” वरुण ने, पूर्वकाल की एक कथा के बारे में विचार करते हुए पूछा। जिस कथा में शिव ने, क्योंकि वह गणेश का अपने पुत्र के रूप में अभिज्ञान नहीं कर पाए, अपने त्रिशूल से उनका शिर शरीर से पृथक कर दिया था, क्योंकि गणेश ने उन्हें पार्वती की ओर जाने से रोका था।

आचार्य ने शिष्यों को फिर से कहा: “यहाँ एक रहस्य है जिसे हमें समझना चाहिए। आओ थोड़ा समझने का प्रयास करते हैं। शिर किस का निरूपण करता है, वरुण?”

“मनस, बुद्धि, आचार्य,” वरुण ने उत्तर दिया।

“हाँ, अवश्य,” आचार्य ने कहा, “शिर मनस, चित्त, बुद्धि एवं अहंकार का प्रतीक है। यह शिर हमारी समस्त समस्याओं की जड़ है, अगर हम इसे एक प्रतीक समान समझें। अतः गणेश के शिर को शरीर से पृथक करना समस्त समस्याओं की जड़ के नाश का प्रतीक था, व्यक्तिगत मनस, चित्त, बुद्धि एवं अहंकार का नाश। और शिव के उस त्रिशूल का स्मरण रखो जिससे शिव ने गणेश का शिर काटा था… शिव का त्रिशूल, जो कि प्रकृति के तीन गुणों का प्रतीक है।।”

“हाँ आचार्य,” अरुणी ने कहा, “मैं स्पष्टता से देख सकता हूँ। यह अतिसुन्दर काव्य है, आचार्य!”

“काव्य वास्तव में क्या है, स्वयं सत्य की प्रेरणास्वरूप अभिव्यक्ति ही तो है?” ऋषिवर ने पूछा, “कवि ही दृष्टा है। भारतीय संस्कृति की समस्त ज्ञान एवं प्रज्ञता हम तक हमारे कवियों के माध्यम से ही पहुंची है, वह जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि के द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया और उस सत्य के कुछ अंशों को अपनी चेतना में ला पाए और उसे शब्द एवं वाक में परिवर्तित कर पाए। इस तथ्य को अंकित कर लो कि वह श्री गणेश ही हैं जिनका ऋषिकवि, अपनी महान कविताओं की अभिव्यक्ति आरंभ करने से पूर्व, आह्वान करते हैं!”

“वास्तव में, आचार्य!”, उपमन्यु ने कहा, “ऐसा क्यों?”

“क्या यह इस कारण नहीं,” अरुणी ने उपमन्यु से कहा, “कि श्री गणेश द्वार हैं, ईश्वर की सर्वविद्यामानता एवं सर्वज्ञान के लिए?”

“और,” वरुण ने एक और प्रश्न पूछा, “श्री गणेश का आह्वान सर्वप्रथम क्यों किया जाता है, अन्य देवी देवताओं से पूर्व?”

“हाँ, सत्य है,” आचार्य ने कहा, “ऐसा ही है। श्री गणेश उद्घाटन हैं, द्वार हैं तथा उनके आह्वान के अभाव में, व्यक्ति को उन सभी शक्तियों और प्राणियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है, जो हमारी साधना और कार्य का विरोध करती हैं। परंतु श्री गणेश के आह्वान से आरम्भ हो, तो व्यक्ति सभी विरोध एवं शत्रुता, सब समस्याओं, बाह्य एवं अंतरतम, को काटता हुआ अतिशीघ्र ही लक्ष्य तक पहुँच जाता है। जैसे कि श्रीगणेश की कृपा एवं शक्ति, कर्म और योग के सारे पथ खोल देती है तथा सारे अवरोध और कठिनाई हटा देती है। तथापि, श्री गणेश को अविघ्न एवं सिद्धिदाता के रूप में भी जाना जाता है, विघ्नों का नाश करने वाले एवं सर्वसफलता एवं प्राप्तियों के दाता।”

“फिर शिर विघटन के पश्चात क्या होता है, आचार्य? गज का शिर क्यों?” वरुण ने फिर से प्रश्न किया।

“यह विशेष रूप से रहस्यपूर्ण है,” आचार्य ने कहा, “गज का शिर ही क्यों? स्पष्ट प्रतिकवाद के अतिरिक्त, एक गज शिर शक्ति एवं बल का, ज्ञान एवं प्रज्ञता का प्रतीक है, यह ऋषि की एक सविचार काव्य युक्ति है, यह दर्शाने के लिए कि मनस, चित्त, बुद्धि, अहंकार के प्रतीक विघटित शिर के स्थान पर किसी और शिर का स्थापन नहीं हो सकता, क्योंकि उस प्रतिरूप को तो तोड़ना है, उस साँचे को अवश्य ही ध्वस्त करना चाहिए। तथापि एक गज का शिर — पूर्णतः विसंगत, पूर्णतः असाधारण और पूर्णतः उत्तेजक है। यह गहन एवं सम्मोहक आयात है — शिर का प्रस्थान अतिआवश्यक है, और सदा के लिए; कोई प्रतिस्थापन नहीं, कोई विकल्प नहीं है। यहाँ एक प्रतीकात्मक महत्व है पर उसे अत्यधिक गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। इसे एक काव्य अलंकार के रूप में लेना चाहिए।”

“अर्थात्,” वरुण ने ध्यान अवस्था से टिप्पणी की, “शेष गज-शरीर भी इसी प्रकार अलंकार होगा, एक प्रतीक और सुझाव जिससे अत्यधिक गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए?”

“अवश्य” ऋषिवर ने उत्तर दिया, “यह इसलिए क्योंकि प्रतिकवाद एक प्रकार की मनस-बुद्धि एवं स्वभाव वाले लोगों को आकर्षित करेगा ताकि वह अपनी भक्ति ईश्वर के कुछ विशेष गुणों पर केंद्रित कर सकें। उदाहरण के लिए, एक दंत, ऐसी ध्यान-अवस्था का प्रतीक है जिसमें व्यक्ति का ध्यान केवल एक वस्तु या विचार या विषय पर केंद्रित रहता है, विघटित दाँत उस सामर्थ्य का प्रतीक है जिसके द्वारा हम जो भी अनावश्यक है उसका त्याग करें, विशाल कान जो की गहन एवं सार्वलौकिक श्रवण के प्रतीक हैं, छोटा मुख वाणी की संयमता का प्रतीक है, विशाल उदर जो की सब कुछ ग्रहण और धारण करने की क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है; उनके हाथ में धारित अंकुश या कुल्हाड़ी आत्मबोध का प्रतीक है क्योंकि उसमें बंधनों एवं अज्ञानता की समस्त गाँठों का विघटन करने का सामर्थ्य है, तथा पाश या रस्सी नियंत्रण का द्योतक है। किसी भी गूढ़ आध्यात्मिक उद्बोधन के लिए प्रगाढ़ नियंत्रण की आवश्यकता होती है क्योंकि इस उद्बोधन की प्रक्रिया में अगाध उर्जा का उत्पादन होता है।”

“किन्तु प्रतीकवाद के परे गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य है, कि निराकार का निरूपण साकार में हो ही नहीं सकता। श्रेष्टम् कविसुलभ या कलात्मक प्रतिरूप, आध्यात्मिक सत्य को प्रकट तो कर देंगे किन्तु यह प्रतिरूप समय के साथ क्षय तथा विकृत होकर आकारवाद एवं कर्मकांड का स्वरूप ले लेंगे। जिन्हे सूक्ष्म ज्ञान नहीं है वह अंततः केवल आकार को दृढ़ता से पकड़ लेते हैं और सार को भूल जाते हैं, जो सत्य स्वरुप है।”

“इस सत्य, इस सार को, अपने हृदय में रखो : श्रीगणेश, जो परमात्मा के अंतर्यामी द्वार हैं, वह हमारे अंतर में हैं, हमें केवल अपने अंदर उनकी उपस्थिति का आह्वान करना है परमात्मा में प्रवेश के लिए…”

अब वहां गहन शांति थी, अंतर में भी और बाहर भी, जैसे चैतन्य मन में कमल रूपी ज्ञान खिल गया हो। जैसे जैसे अंतर में ज्ञान पुष्य खिल रहा था, बाह्य जगत में अंधेरा बढ़ता जा रहा था।

ऋषिवर फिर से उच्चारण करने लगे, गहन और धीरे, जैसे अपने अंतर की किसी अथाह चैतन्य की गहराई से स्वर निकाल रहे हों।

ॐ नमस्ते गणपतायै 

त्वमेव प्रत्यक्षम् तत्वम् असि
त्वमेव केवलम् कर्ता असि
त्वमेव केवलम् धर्ता असि
त्वमेव केवलम् भरता असि
त्वमेव सर्वम् खलुविदम् ब्रह्म असि
त्वम् स्कंद आत्मा असि नित्यम्

(गणपति अथर्वशीर्ष, V.2)

हे श्रीगणेश
सब का एकमात्र व्यक्त सत्य एवं सार केवल आप हैं,
केवल आप ही एकमात्र कर्ता है, आप ही एकमात्र पालनहार हैं,
अंत में यह ब्रह्मांड आप में ही विलीन हो जाता हैं,
एकमात्र आप ही अनंत एवं सर्वविद्यमान ब्रह्म हैं,
एकमात्र आप ही शाश्वत व्यक्त आत्मा हैं।

ॐ नमस्ते गणपतायै 

हिन्दू मेरा परिचय

युग-युग से जिसे संजोये हूं बाप्पा के उर की ज्वाल हूं मैं

कासिम के सर पर बरसी वह दाहर की खड्ग विशाल हूं मैं


अस्सी घावों को तन पर ले जो लड़ता है वह शौर्य हूं मैं

सिल्यूकस को पददलित किया जिसने असि से वह मौर्य हूं मैं


कौटिल्यहृदय की अभिलाषा मैं चन्द्र गुप्त का चन्द्र्रहास

चमकौर दुर्ग पर चमका था उस वीर युगल का मैं विलास


रणमत्त शिवा ने किया कभी निश-दिन मेरा रक्ताभिषेक

गोविन्द, हकीकत राय सहित जिस पथ पर पग निकले अनेक


वो ज्वाल आज भी धधक रही है तो इसमें कैसा विस्मय

हिन्दू जीवन हिन्दू तन-मन रग-रग हिन्दू मेरा परिचय... 




BATTLE OF GOKUL,1757 - HOW GALLANT NAGA SADHUS CRUSHED MIGHTY AFGHANS

 Naga Sadhus in the medieval era played a very vital role in protecting the culture, faith, tradition of Hindu Religion from Barbaric Islamic Invaders and also in safeguarding many temples from attack of Mughals, Afghans,Turks. 

In the 8th century Adi Shankaracharya when saw the frequent assaults on Hindus, desecration of temples and other cultural sites which are of utmost reverence in the Hindu World By Islamic Invader, he then decided to introduce a military curriculum in Naga Sadhus for the sake of protecting the motherland and Religion from plunders of Islamic attackers. They then became the valiant, chivalrous fighter after acquiring a tough military training and in the battlefield played havoc on the enemies army which instill a sense of fear in many Muslim kingdom and empire related to them.

It was the time when Afghanistan’s Emperor Ahmed Shah Abdali invaded India 4th time in a row, at that Time Mughals were very weak and there is no other Hindu power in the Northern part of India to challenge the Islamic invaders, so Afghans took advantage of the situation and made an outrageous treaty with Mughal King ALAMGIR in which he got the permission of looting Delhi from Mughals and in January 1757 he looted Delhi, decimated the temples but still he wasn’t satisfied with the bounties he got in the loot. 

He instructed his two Afghan commanders Najib Khan and Jahan Khan to take 20,000 afghan soldiers with them and carryout the raids in Ballabgarh, Mathura, Agra, Vrindavan. He also said that

The city Of Mathura, Vrindavan is a holy place of the Hindus, let it be put entirely to the edge of the sword, upto Agra leave not a single place and raze every building to the ground, whatever booties you would get in the wars will be yours, behead the Hindu Kafirs and gift their head in Afghan camp to me and take RS 5 as a reward for that.

AHMED SHAH ABDALI

As the afghan army reached in Mathura they started destroying temples, raping women and Hindu men were beheaded and cut into pieces, Children were enslaved, many women for saving their honor dived in the Yamuna river and so many of them died, many people were running here and there to get shelter so as to escape from the murderous Afghan maniacs, a large crowd of Hindus took refuge in the cave which is behind the Shitala Mata Temple, Afghan soldiers saw them hiding and they then mercilessly went inside cave and killed all Hindus in the cave. 

For 3 days the holy soil of Mathura was drenched with Blood of Hindus and the number of dead bodies were so much that Mathura’s air was producing foul smell for so many months. Afghan army captured bounties worth RS 12 crore, enslaved 6,000 Hindu women for selling them in Kabul. After attacking Mathura Afghan marched towards Vrindavan and that too met the same fate as that of Mathura.

After destroying Vrindavan, Afghan army leapt on Mahaban and looted the treasure and did genocide of Hindus, their next target was to attack Agra but suudenly Sardar khan, an Afghan commander thought why not Plunder and loot Gokul also which is just 9 KM away from Mahaban, He along with 10,000 Afghan soldiers went towards GOKUL where they saw 4,000 Naga Sadhus standing for the war with them. 

When Naga sadhus heard about the plight caused by the Afghans on Hindus then 10,000 naga sadhus from sacred cities of Hindus like Haridwar, Ujjain started gathering in Gokul but were little late in reaching their since Haridwar, Ujjain was at a comparable distance from Gokul. A war started between Afghan army and Naga sadhus, at first afghans anticipated that nagas wouldn’t be able to counter them for long but soon they were proved wrong, Afghan soldiers were overpowered by naga sadhus military skill who were carrying Swords, matchlocks and cannons with faces smeared in ashes was terrifying Afghan soldiers were unable to give any resistance to nagas at all. With heavy casualties Afghan army started suffering due to which their strength now started decreasing drastically on the battlefield. 

This enraged Abdali so much that he threw more troops in the war but it is of no avail, dead bodies of Afghan soldiers were piling and afghans were losing morals, meanwhile the other bands of nagas also entered in the battlefield which intensified attack of nagas, In fear of loosing war and soldiers Afghans started retreating after the order of Sardar khan. 

More than 5,000 afghan soldiers died and countless soldiers got injuries whereas 2,000 nagas attained martyrdom in this battle. Afghan commander Sardar khan was aware that Abdali would punish him for his decision of retreating from the war with humiliation since they were victories everywhere from kabul to Mathura and defeat from hands of Nagas was a big blow to them. 

HE bribed Jugal Kishor who was the appointed by Abdali from bengal for inspecting the war, loot and treasure caught in war to frame a false report stating that afghans retreated due to spread of epidemic in Afghan army so that he could escape from the penalty of losing war in Gokul without any bounties.

The Naga Sadhus thus were able to save Gokul from the tyranny of Afghans and many Hindu shrines were rescued from Afghan, the sacrifices given by the gallant, chivalrous Naga Sadhus and the belligerency they exhibited during the war outstripped the unbeatable Afghan army,many Nagas died due to slippery nature of battlefield caused by blood of dead bodies of Soldiers but they still didn’t lost hope, such incident juxtaposes the brutal realities of war, oppression with instances of unforgettable spiritual grace and stepping in the history and passing through a turmoil is both thought provoking and gripping.

The true of exemplars of courage,faith naga sadhus motivates us on how to protect the motherland and culture from foreign invasion. With no regard for their own lives and firm determination to preserve faith and culture slain afghan army to save holy town of Gokul. 

The appalling cost paid by them in the battlefield with battle cry of ‘Har Har Mahadev’ struck Afghans so much that they will not ever in their dream dare to think of attacking hindus in Gokul. 

Such is the history and long tradition of Naga Sadhus full of valor and indifferent to materialistic desires of the world. Such is the god’s way of testing the fibers and spirits of their disciples. The selflessness and love for their culture and defence of the faith they did during the critical stages of History will always remain intact in our heart forever.

राजपूतो ने क्या किया!!

 

राजस्थान के जिलों के नामों को ध्यान से देखनाइन नामों में एक भी जिले का नाम मुगलो पर नही है!!

राजपूतो ने क्या किया!! 


#अजमेर:-  अजमेर 27 मार्च1112 में चौहान राजपूत वंश के  तेइसवें शासक अजयराज चौहान ने बसाया!


#बीकानेर:- बीकानेर  का पुराना नाम जांगल देश, राव बीका जी राठौड़ के नाम से बीकानेर पड़ा!

 #गंगानगर:- महाराजा गंगा सिंह जी से गंगानगर पड़ा!

#जैसलमेर:- जैसलमेर ,महारावल जैसलजी भाटी ने बसाया!

#उदयपुर: - महाराणा उदय सिंह सिसोदिया जी ने बसाया उनके नाम से उदयपुर पड़ा!

#बाड़मेर:- बाड़मेर को राव बहाड़ जी ने बसाया!!

 #जालौर:- जालौर की नींव 10वी शताब्दी में परमार राजपूतों के द्वारा रखी गई बाद में चौहान,राठौड़,सोलंकी राजवंश का शाशन रहा


#चित्तौड़:- स्वाभिमान, शौर्य ,त्याग, वीरता ,राजपुताना की शान चित्तौड़, सिसोदिया(गहलोत)वंश ने बहुत शासन किया बप्पा रावल, महाराणा प्रताप सिंह जी ने यहाँ शासन किया

 #प्रतापगढ़:- प्रताप सिंह महारावत ने बसाया!

#सिरोही:-राव सोभा जी के पुत्र, शेशथमल ने सिरानवा हिल्स की पश्चिमी ढलान पर वर्तमान शहर सिरोही की स्थापना की थी। उन्होंने वर्ष 1425 ईसवी में वैशाख के दूसरे दिन (द्वितिया) पर सिरोही किले की नींव रखी।

 #डूंगरपुर:- वागड़ के राजा डूंगरसिंह ने .1358 में डूंगरपुर नगर की स्थापना की बाबर के समय में उदयसिंह वागड़ का  ने मेवाड़ के महाराणा के संग्रामसिंह के साथ मिलकर खानुआ के मैदान में बाबर का मार्ग रोका था


#जोधपुर:-राव जोधा ने 12 मई, 1459 . में आधुनिक जोधपुर शहर की स्थापना की।

 #हनुमानगढ़ :-भटनेर दुर्ग 285 ईसा में भाटी वंश के राजा भूपत सिंह भाटी ने बनवाया इस लिए इसे भटनेर कहाँ जाता है। मंगलवार को दुर्ग की स्थापना होने कारण हनुमान जी के नाम पर हनुमानगढ़ कहा जाता है।

#सीकर:-सीकर जिले को "वीरभान" ने बसाया ओर "वीरभान का बास" सीकर का पुराना नाम दिया।

 #राजसमंद:- शहर और जिले का नाम मेवाड़ के राणा राज सिंह द्वारा 17 वीं सदी में निर्मित एक कृत्रिम झील, राजसमन्द झील के नाम से लिया गया है।


#पाली:- महाराणा प्रताप की जन्मस्थली एवं महाराणा उदयसिंह का ससुराल है। पाली मूलतया पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा बसाया गया है।


 #बूंदी:-इतिहास के जानकारों के अनुसार 24 जून 1242 में हाड़ा वंश के राव देवा ने इसे मीणा सरदारों से जीता और बूंदी राज्य की स्थापना की। कहा जाता है कि बून्दा मीणा ने बूंदी की स्थापना की थी, तभी से इसका नाम 'बूंदी' हो गया।


 #भीलवाड़ा:-किवदंती है कि इस शहर का नाम यहां की जनजाति भील के नाम पर पड़ता है जिन्होंने 16वीं शताब्दी में अकबर के खिलाफ मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप की मदद की थी तब से इस जगह का नाम भीलवाड़ा पड़ गया

#सवाई_माधोपुर:-राजा माधोसिंह ने ही शहर बसाया और इसका नाम सवाई माधोपुर दिया


 #जयपुर:-जयपुर शहर की स्थापना सवाई जयसिंह ने 1727 में की। सवाई प्रताप सिंह से लेकर सवाई मान सिंह द्वितीय तक कई राजाओं ने शहर को बसाया।

#झालावाड़:-झालावाड़ गढ़ भवन का निर्माण राज्य के प्रथम नरेश महाराजराणा मदन सिंह झाला ने सन 1840 में करवाया था।


 #नागौर:-नागौर दुर्ग भारत के प्राचीन क्षत्रियों द्वारा बनाये गये दुर्गों में से एक है। माना जाता है कि इस दुर्ग के मूल निर्माता नाग क्षत्रिय थे। नाग जाति महाभारत काल से भी कई हजार साल पुरानी थी। यह आर्यों की ही एक शाखा थी तथा ईक्ष्वाकु वंश से किसी समय अलग हुई।


 #अलवर:-कछवाहा राजपूत राजवंश द्वारा शासित एक रियासत थी, जिसकी राजधानी अलवर नगर में थी रियासत की स्थापना 1770 में प्रभात सिंह प्रभाकर ने की थी


#धौलपुर:-मूल रूप से यह नगर ग्याहरवीं शताब्दी में राजा धोलन देव ने बसाया था। पहले इसका नाम धवलपुर था, अपभ्रंश होकर इसका नाम धौलपुर में बदला


 #दौसा:- बड़गूजरों  द्वारा करवाया गया था। बाद में कछवाहा शासकों ने इसका निर्माण करवाया।

#टोंक:- 16 वी शताब्दी में टोडा रियासत के रूप में जाना जाता था राव जग्गनाथ गद्दी ओर विराजमान था उसके बाद नाम बदलने तक के अलग अलग किस्से है

राजपूतों ने हमेशा शत्रुओं को पछाड़ा है, ना कभी किसी से हारे हमेशा विजय रहे, अपने क्षत्रिय धर्म पर अटल रहे!
कुछ युद्ध हारे है। जो नगण्य है!
 

Hindutva As Dharmic Resistance

 The future, in many ways, will be a deep and intense battle of all dharmic forces against the forces that threaten to disrupt and destroy dharma, anywhere on earth. Hindutva is a first robust stand against these disruptive forces.

It bears reiterating that Hindutva cannot be aggressive or violent, for all forms of aggression and violence contradict the spirit of Hindutva. Those who would stand and fight for Hindutva must bear this in mind. The true strength of Hindutva lies in its spirit, in its core doctrine of growth of consciousness. The continuous widening and heightening of consciousness is the core idea around which the new Hindutva narrative must be built.

There is no doubt that forces stubbornly opposed to Hindutva must be fought, repelled, neutralized in every possible way. But fighting the way most others fight, through radicalization and weaponization, cannot be the Hindutva way. We must always bear in mind the simple fact that we are ultimately fighting to defend a way of being, and this way of being, however we may interpret it, does not justify aggression or violence. 

But again, this must not lead us to believe that we are to take aggression lying down. Just as physical or military violence is not an option, turning the other cheek too is not an option. What we need to learn is the art of resistance. Not the “passive resistance” of Gandhi but the dharmic resistance of Krishna — to stand in perfect equanimity in the light of our own deepest truth and be prepared to sacrifice our all for the cause; be prepared to die or kill, but without a trace of personal reaction, hatred or vengeance.

This will mean internalizing the battle, learning to take an inner stand, based on spiritual conviction and atma Shakti. Most human battles are fought externally, and so there is mayhem and wanton destruction, but the evil lives on. External violence cannot eradicate the evil, for the evil resides in the consciousness of people, and no outer battle can destroy that. To uproot the evil from its bleeding roots, we must learn to fight the battle where it matters most — in consciousness. This is the import of dharmic resistance: to stand in the way of adharma like a mountain, as unshakeable, as imperturbable, as absolute, and let the true consciousness become the force field around us.

For such a dharmic resistance, the yoddha or the warrior must find the truth of his soul. The dharma yoddha must bring to himself or herself the strengths and resources of the consciousness, which are inconceivably greater than all the physical, economic and military resources we can garner. In fact, the outer resources, physical, economic or military, will find their true purpose and power when led by the consciousness, by the inner truth, by the force of Dharma itself.

All this may sound somewhat abstract and impractical to those moved by great passion for Dharma, those who would rather fight in the trenches, but let us recall that the dharmayuddha of old was fought first of all in the mind and spirit. 

Sri Krishna first brought Arjun to the great inner realization of Dharma, to the vast truth of the atman, and only then did he send Arjun into the battlefield to kill. The Bhagavad Gita is not mere metaphor, it is real in every word and sentence. Though it seems fashionable for some modern scholars to interpret the Gita in terms of psychological metaphor, we must not let all that distract us; the Gita is as literal as it gets. 

The dharmayuddha that Arjun was exhorted to fight was as real then as it is now; the forces of adharma rage around us today even more ferociously and formidably than it did then. It is now, more than ever, that we need to use the Gita as our brahmashastra, literally.

To abandon the deeper spiritual message of the Gita at this critical time in our own dharmayuddha and rush in with weapons of destruction would be utterly foolhardy. The Gita is our manual for action, the whole strategy for the battle, the assurance of victory.

And what indeed is this strategy? This can be summarized in just two points:

First of all, root yourself in the truth of your being, become atmasthita. This is crucial. To go into dharmayuddha without being firmly established in one’s own dharma would be worse than soldiers going into combat without basic training in martial arts. Being atmasthita is not abstract spirituality, as Krishna makes perfectly clear to Arjun; it is the very key to victory. The atman is the true source of strength and wisdom, it is that which raises the yoddha to another level altogether, it is the singular game changer.

Second, being atmasthita, surrender the outcome of the battle to the Divine, relinquish all personal demand for victory and trust the infinitely vaster Divine Wisdom and Vision that unerringly guides all life in the universe. When we do that, we open ourselves in a very real and practical way to the direct guidance and inspiration of the Divine, we become instruments in its vaster action and are no longer left to our own meagre devices and resources. This is something that can be done effortlessly once we understand the deeper truth that Dharma and the dharmayuddha are finally not in human hands but in the hands of the Divine. If Dharma indeed is eternal, then it is also protected by the eternal consciousness. We are all mere instruments, nimitta matra, whether we like it or not. That which is already determined in the Divine’s cosmic vision is eventually what will happen in this world. Our business as instruments in the action is to keep our minds and hearts, our volition and actions, aligned to the Divine and go forth in battle protected by the armor of an inner knowing that no outer knowledge or force can rival.

Thus are we made into true warriors of Dharma. Let us reflect upon this before we rush into battle.