मित्रता

व्याकरण के अनुसार " मित्र " शब्द का संधि विच्छेद होना संभव नही है लेकिन जब एक अनजान "ता" मिलता है तो  उसका संधि विच्छेद करने का प्रयत्न किया जाता है लेकिन यह संधि विच्छेद होकर मात्र एक संयोग होता है...

आशय यह है कि " मित्र" अटूट होता है ,उसमें विच्छेद की सम्भावनाये तनिक भी नही होती हैं क्योंकि वहाँ दो होकर भी एक होते हैं लेकिन जब " ता ' आता है जो कि औपचारिकता और सहजता के भी भाव लाता है तो वहाँ दो जाते हैं और जब दो का भाव जाता है तो दोनो के ही हित अलग अलग होने लगते हैं जिससे संभव है कि किसी के भड़काने पर संधि विच्छेद हो जाये....

1. दोनो में मित्रता है  ..

2. दोनो मित्र है..

दोनो ही शब्द के भाव एक जैसे हैं लेकिन एक मामूली सा अंतर है।  2 नंबर अभिन्न है मगर पहला  संशय है।

एक संज्ञा तो दूसरा संज्ञा सर्वनाम का विशेषण है

यह विशेषण ही कहीं कहीं दो का भाव दे देता है ....

 

कृष्ण और अर्जुन मित्र हैं जो दो होकर भी एक है।

एक नारायण ऋषि है तो दूसरा नर ऋषि है..

लेकिन जब दोनों मिलते हैं तो विष्णु अर्थात " प्रथम" हो जाते हैं

अर्जुन का हित ही कॄष्ण का हित है

कृष्ण का हित ही अर्जुन का हित है।

दोनो का एक दूसरे पर समान अधिकार है।

 

मगर वहीं दुर्योधन और कर्ण में  मित्रता है  

दुर्योधन राज भाव से कर्ण को अंग देश का राजा बनाता है और कर्ण दास भाव से दुर्योधन का आभार व्यक्त करता है ...

वहीं दुर्योधन राजनीति भाव लेकर  कर्ण से मित्रता करता है।

कर्ण मित्रता का वह  "ता" है जो आजीवन दुर्योधन के कहे हुए शब्दों को ही दुर्योधन का हित मानने को विवश है कर्ण दुर्योधन को कृष्ण की तरह सलाह तो दे सकता है लेकिन दुर्योधन को वह मानना ही पड़े उसकी बाध्यता नहीं है ......

दुर्योधन और कर्ण के बीच में "ताहै जो संशय हिचक का कारण बनता है , कर्ण को अपनी मित्रता साबित करने के लिए कहीं कहीं दुर्योधन जैसा व्यवहार करना ही पड़ेगा।

कर्ण धर्म को दुर्योधन से अधिक जानने के बावजूद भी वह कृष्ण की भाँति दुर्योधन को डाट नही सकता, उसका गुरु नही बन सकता क्योंकि दुर्योधन का वह राजनीतिक मित्र है  आत्मिक नही....

 राजनीतिक मित्र की मर्यादाएं होती हैं जबकि आत्मिक मित्र दो होते ही नही तो मर्यादाओं की क्या बात.......!

अतः मित्र बनिये किसी को "ता" मत बनाइये...

"ता " संयोग तो है लेकिन संशय अविश्वास का भी कारक है

यदि " ता " यानी संयोग से कोई मित्र बने तो " ताके भाव को हटाकर नियति और अनिश्चितता के भाव को हटाकर निश्चितता का भाव रख लेना चाहिए

 

"ता" यानि संयोग से भी मित्र बनते हैं उन्हें अभिन्न बनाने का कार्य केवल सच्चा मित्र भाव ही कर सकता है ...

 

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